________________
( ६७५ ) स्वामी दयानन्द जी और कर्मफल सम्पूर्ण वैदिक साहित्यसे कम फल दाता ईश्वरकी सिद्धि जय न हो सकी तो स्वामीजीने कम फल के लिये कर्म और कर्म फल ईश्वर विषयक नवीन कल्पनाओंसे काम लिया। श्राप लिखते हैं कि "ईश्वर फल प्रदाता न हो तो पापके फल दुःखको जीप अपनी इच्छासे कभी न भागे। जैसे चार श्राधि चोरीका फल अपनी इच्छासे नहीं भोगत किन्तु राज व्यवस्थासे भोगते हैं। अन्यथा कर्म संकर हो जायेंगे अन्य कृत कम अन्यको भोगने पड़ेंगे।" ___ यहां स्वामीजीने कर्मों का फल दुःख माना है और वह दुःख जीचोंको परमात्मा देता है। वाहरे परमात्मा ! तेचे पेशा भी अपनाया तो बेचारे जीवोंको दुःख देनेका, अाज तो कोई भला आदमी भी किसीको दुःन देना नहीं चाहता और श्रापका वह परमात्मा जीवोंको दुःख देना मप कम करता है उसका फल भी देने वाला कोई नियुक्त करना चाहिये ताकि उसकी यह वृत्ति सीमित रह सके । क्योंकि इसने बंगाल, क्वेटा आदिमें लाखों जीवोंको दुःख देकर अपने इस अधिकारका दुरुपयोग किया है । आपने जो दृष्टान्त राज्य व्यवस्थाका दिया है यह जज ( न्यायाधीश ) अपने स्वार्थ (तन ) के लिये काम करता है और राज्यने यह व्यवस्था इस लिए कर रक्खी है कि कहीं प्रांतमें अराजकता न फैल जाय जिससे दूसर राजाको चढ़ाई करनेका अवसर मिल जाय और मैं वरवाद हो जाऊँ । प्रजा राजाको टैक्स भी इसी प्रबन्ध करनेका देती है।
तो क्या परमात्मा वेतन लेता है ? अथवा टैक्स लेन की व्यवस्था करता है। या अन्य राजाके चढ़ आनसे ऐसा करता है। अगर जीव अपने आप दुख नहीं भोगना चाहता तो परमात्माका