________________
1 ६५५ ) शरीरके और सब अंग दलते है इसलिए यह भेजा ऐसा बनता है कि चाहे कितना ही चयूस यों न भी गातुन वा का मनुष्यके मनके स्वभाव और गुणोंका स्थूलमें दरसाने वाला होता है और अब जो शक्तियां कि पिछले संस्कारों के आधार से वह स्थूल में प्रगट कर सकता है उनके लिये यह ठीक बैठता हुआ शरीर होता है।
५१-उनाहरणकी तरह चुराई अर्थान् स्वार्थ वाले और भलाई अर्थात परोपकारी पुरुषों को लो । इनमें से एक मनुष्य तो बराबर स्वार्थता के विचार चित्र पैदा करता रहता है जैसे कि स्वार्थ की लालसापं स्वार्थ की भांति भोति की प्रास, स्वार्थकी जुगत; और इन चित्रोंके झुण्ड के मुएड उसके इर्द गिर्द मंडलाते रहते है और उसी पर अपना रङ्ग जमाते रहते हैं। इससे वह अपने स्वार्थम ऐसा अन्धा हो जाता है कि दूसरोंके अर्थका तिरस्कार करके अपने ही हित के जतन में लगा रहता है। यह अंत में मरता है और तब तक इसका स्वभाव पकने पकने कठोर स्वार्थीपन का नमूना अन जासा है । यह स्वभाव स्थिर हो जाता है और फिर क्रम से शक्ल बनकर आगे स्थूल में जन्म लेने के लिए सांचे का काम देता है। यह अपने स्वभाव से मिलते हुए धराने में और उन माँ बापों के यहां जन्म लेने को जाता है कि जिनके स्थूल शरीरसे इसके गुणों से मिलते हुये स्थूल अंश मिल सके. और वहां इस बासनिक साँचे में इसका स्थूल शरीर उलता है और इसके सिरका भेजा ऐसी शलाका बनता है कि उसमें जितनी अधिकता उन स्थूल अंशों की होती है जिनसे स्वार्थता को पशुत्तियां प्रगट हो सके उतना ही प्रभाव सदाचार के अच्छे २ गुणों के प्रगट करने वाले एल अंशों का होता है। अगर कोई बिरला मनुष्य एक जन्मभर लगातार अपने स्वार्थ ही में अंधा (स्वार्थान्य) बना रहे तो बागे