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उपरोक्त कथन इतना तात्विक और स्पष्ट हैं कि इसके ऊपर कुछ लिखने को आवश्यक्ता नहीं है। यहां सबसे प्रथम तो प्रश्न यह है कि कौन सा कर्म बुरा है और कौन सा अच्छा है, इसको पहचानने की कौनसी कसौटी है। शास्त्रकारों ने स्वयं कहा है। "न धम्मम्मों चरतः श्राव स्व इति
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अर्थात् धर्म और अधर्म घूमते नहीं फिरते और न यह कहते फिरते कि धर्म हूँ मैं हूँ जब श्रुति ही यह कहती है तो इस मनुष्य के पास कौनसा साधन है जिससे यह जान सके कि अमुक काम करने से ईश्वर पुरस्कार या दण्ड देगा। स्वयं आस्तिक बाद में ही लिखा है कि न कोई कर्म पुण्य है और न पाप' जब यह बात हैं तो ईश्वर फल किसका देता है । यदि यात पुरुषों के वचनों को धर्म माना जाय तो भी किस प्राप्त के वचन धर्म हैं यह कैसे सिद्ध होगा। क्योंकि सभी देशों में समय समय पर महापुरुष हुए हैं उन्होंने अपने अपने धर्म भी प्रचलित किये
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हैं साधारण जनता उन सभी को अस मानकर उनके धर्म पर चलती है अतः उनमें से किन धर्म को ईश्वर पसन्द करता है यह कैसे जाना जाय । जब ईश्वर ने मनुष्य को इस प्रकार के ज्ञानके लिये साधन नहीं दिये तो उसे उस कर्मका फल क्यों मिलना चाहिये
मानलो एक बालक मुसलमान के वरमें उत्पन्न हुआ है माता पिता ने उस पर अपने धर्म के अनुसार ही संस्कार डाले हैं बचपन से ही उसने कुराम आदि अपनी धार्मिक किताबें पढ़ी है तथा मुसलमान महापुरुषों के ही जीवन चरित्र पढ़े हैं तथा उन्हींका इतिहास पढ़ा है. अब इन सबसे उसके मनमें यह दृढ विश्वास हो गया है कि मुसलमानों के सिवाय सब काफिर हैं और काफिरों को कत्ल करना, उनका माल लूटना, उनकी बहू बेटियों पर बलात्कार करके उनकी बेहनती करना परमधर्म है.
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