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करता है कि वर्तमान परिस्थिति में क्या श्रेयस्कर है । क्रिस कामका क्यापुरस्कार या दण्ड दिया जाय, ६ वयोवार निर्भर है या नियम बढ़ है ! अर्थान--क्य। अमुक कामका अमुक फल. होगा ग्रह नियन है ? यदि इन बातों में ईश्वर की इक्छा स्वतन्त्र है तो समाचार निराश्रय हो जाता है। इच्छा का क्या भरोसा न जाने कब पलट जाय । जो पुण्य है वह पाप हो जाय. जो दण्ड है वह पुरस्कार्य हो जाय । यदि का कार्य का निर्णय वस्तुस्थिति की समीक्षा पर निर्भर है तो प्रत्येक मनुष्य को अपनी बुद्धिके अनुसार स्वयं समीक्षा करनी होगी। क्योंकि किसी समय विशेषपर ईश्वर को क्या सम्मति है इसके जानने का हमारे पास कोई साधन नहीं है।
कामका फल नियमानुकूल मिलता है तो ईश्वरका मानना वेकार है । ईश्वर फल देना है न कहकर यह कहना ठीक होगा कि नियति के अनुसार फल मिलता है । ऐसी स्थिति को वैदिक वाङ्गमय में पत्य का नाम दिया गया है।
अपने से बाहर किसी ईश्वरकी और दृष्टि लगाये रहने की अपेक्षा कर्म और फल के अटल सम्बन्ध को जिसे कम सिद्धान्त कहते हैं बराबर सामने रखना सदाचार के लिये बढ़तर सहारा है।" पृ८६३३ । छामे आपने दर्शन और जीवन' नामक पुस्तकमें लिखा है कि कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि यह जगत् ईश्वर की मुष्टि है।" यदि यह बात ठीक है तो ईश्वर ने ही मनुष्य को पंक्षा किया। ईश्वरने ही उसके लिये एक विशेष प्रकारकी अार्थिक और
और कौटुस्बिक चहार दीवाल बन्दी की । ईश्वरने ही उसे जन्मान्ध या बाल रोगी या बावला या प्रतिभा शाली बनाया । फिर यह सोचने की बात है ! कि उसके सत्कर्म के लिये पुरस्कार और दण्ड जसको मिलना चाहिये या ईश्वर को ::