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करनेमें स्वतन्त्र नहीं है । इसके दो कारण है १-अन्तरंग कारमा २-बहिरंग परिस्थिति।
अन्तरंग कारणों में इसके स्थूल और सूक्ष्म शरीर की रचना तथा पूर्व जन्मके और इस जन्मके संस्कार हैं । प्राणी इनसे विवश होकर अनेक प्रकार के कार्य करता है. इसलिए सबसे प्रथम हम शरीर आदि की रचनाका विचार करते हैं। श्री नारायण स्वामीने आत्मदर्शनमें लिखा है कि____ "मस्तिष्क और चित्तके सम्बन्धम योरोपके मनोवैज्ञानिकों और दार्शनिकोंमें मतभेद है । एक दल कहता है कि मस्तिष्क और चित्तमें सत्ताभेद नहीं. ये दोनों पर्यायवाचक है, दूसरा दल कहता है कि मस्तिष्क जड़ और "माइण्ड" (मात्मा ) का यन्त्र मात्र है। इस दलके अनुयायी "माइएल को वीमात्मा कहते हैं तीसरा विचार यह है कि मस्तिष्क और चित्त दोनासे पृथक आत्मा है और ये दोनों उसके यन्त्र मात्र हैं । जबादो नास्तिक . जो प्रात्माको स्वतन्त्र सस्ता नहीं मानते. पहिले दामें एक न एक प्रकारका मत रखते हैं, परन्तु आस्तिक जगत् अन्तिमवाद का समर्थक है । इसी जगह छम यह बता देना चाहते हैं कि भारतीय दर्शन और उपनिषद् इस विषय (शरीरके आन्तरिक व्यापार के सम्बन्ध) में क्या शिक्षा देते हैं जिससे विषयके तुलनात्मक झान प्राप्त होनेमें सुगमता हो।
आंतरिक ब्यापार दर्शन और उपनिषद् जीवात्मा नित्य चेतन और स्वतन्त्र सन्तावान है शरीर उसे अपने गुणों ज्ञान और प्रयत्न को क्रियात्मक रूप देने के लिये मिलता है।
शरीर के ३ भेद हैं- (९) स्थूल शरीर-जिससे हम सत्र