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अर्थात - जिस प्रकार हजारों गायों में से बछड़ा अपनी मां को पहिचान कर उस के पास पहुंच जाता में उसी प्रकार किया हुआ कर्म कर्त्ता के पास आ जाता है ।
विज्ञान ने भी इस बातकी पुष्टि की है। जिस तरह से विद्यत जिस स्थान से चलती है लौट कर उसी स्थान पर वापिस आ जाती है। उसी प्रकार कर्म भी लौट कर वापिस आते हैं, और कर्त्ता को सुख दुःख देते हैं। अर्थात् भावकर्म इन कार्माण वर्गराओं को आकर्षित कर लेता है। यह माये हुए कर्म ( कार्मार वर्गणाएं ) आत्मा की मूल शक्ति (दर्शन, ज्ञान, चारित्र) पर पर्दा डाल कर उसको प्राच्छादित कर देते हैं । उस स्वाभाविक शक्तिके तिरोभूत हो जाने से आत्मा अपने को तदनुसार समझ कर उन्हीं कर्मों के आधीन हो कर नवीन कर्म करता है। इसी को जैनशास्त्रों में विभाव परिति कहते हैं । इसी विभाव परिणति के कारण यह आत्मा अनादिकाल से कम के बन्धन में पड़ा हुआ मुख दुःख भोगता है।
उपनिषद् और कर्मफल
उपनिषद्कारों ने इस विषयको स्पष्ट किया है कि
"काय एवायं पुरुष इति स यत्कामो भवति तत्कर्तुति यत्कर्तुर्भवति तत्कर्म कुरुते यत्कर्म कुरुते तदभिसंपद्यते" - वृहदारण्यकोपनिषद् ४-४-५
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अर्थात – यह पुरुष कामनामय है अतः उस कामना के अनुसार ही यह चिन्तन करता है और चिन्तनके अनुकूल ही कर्म करता है। और जैसा यह कर्म करता है वैसा वह बन जाता है। आगे कहते हैं "सईयते पत्र कामम" जैसा वह बन जाता है, उसके