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(१३४ ) हैं वैशेषिकदर्शन में कर्म फलका कोई विशेष विवेचन नहीं किया गया है और नहीं ईश्वरको कर्मफल दाता. माना है यह हम अनेक प्रमाणोंसे सिद्ध कर चुके हैं।
गोता कर्म, फल किस प्रकार देते हैं यह गीता के प्रमाणसे हम पहिले यता चुके हैं उसीसे यह सिद्ध हो जाता है कि कर्म फल देनेकेलिये किसी ईश्वर विशेषकी श्रावश्यकता नहीं है परन्तु गीताने इतने ही से संतोष नहीं किया उसने मों में काले तिरे ईश्वरकी श्रावश्यकता का निषेध किया है यथा
"न कतत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु । न कर्मफल संयोग स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥" गीता ५।१४
वर्तमान समयके सर्वश्नेष्ट्र विद्वान लोकमान्य तिलकने इसका अर्थ इस प्रकार किया है । प्रमु ( परमात्मा) ने लोगोंके कर्मका या उनसे प्राप्त होने वाले कर्म फल संयोगका भी निर्माण नहीं किया। स्वभाव अर्थात प्रकृति ही सब कुछ किया करती है।
आगे चल कर गीता कहती है"अज्ञानेनावतं ज्ञानं तेनमुह्यन्ति जन्तवः ।" गीता ५.१५
ज्ञान पर अज्ञान का परदा पड़ जाने से जीव मा हत (विवेक, हीन होकर सुख दुःख भोगता है।
महाभारतमें लिखा है"यथा धेनु सहस्रेषु वत्सो विदन्ति मातरम् । तथा पूर्वकूनं कर्म-कर्तार मनुगच्छति ॥"
शान्तिपर्व अ० १८१-१६