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को ही माना जाता है । महत्तत्व अहंकारादि परंपरा से परिणाम को स्थापित करते हैं और आपस में एक दूसरे के अनुपाहक बन कर कर्मों के फलों को जाति, श्रायु, भीर रूप से निष्पन्न करते
-योगदर्शन व्यास माध्य , ३ ___ योगदर्शनानुसार कर्मों से क्लोश उत्पन्न होते हैं और लोशों से कर्मों का बन्ध होता है । जनदर्शन में इसी को द्रव्यकर्म से भावकर्म और भाषकर्म से द्रव्यकर्म का उत्पन्न होना कहा है। श्रतः योगदर्शन भी कर्मफल देने के लिये ईश्वर की सत्ता स्वीकार नहीं करता । योगदर्शनका ईश्वर सम्पूर्ण वैदिक दर्शनों से निराला है। जिस को हम मुक्तात्मा कह सकते हैं।
वेदान्त दर्शन वेदान्तदर्शन के अनुसार तो जीव, कर्म, सुख, दुःस्य च संसार की सत्ता ही नहीं है। यह सब भ्रममात्र है। अतः कर्म और उसके फल के विषय में जो कुछ लिखा है, वह सब निराधार सिद्ध हो जाता है। क्योंकि ईश्वर के सिवाय उसके मत में कोई वस्तु ही नहीं है । उसके मत में-बम भ्रमवश माया में फंस गया है । ग्रह माया क्या है यही एक जटिल समस्या है। जिसको सुलझाने में सार आचार्य असफल ही रहे हैं । अतः उसके विषय में हम विशेष विचार करने की कोई आवश्यकता ही नहीं समझते ।
न्यायदर्शन न्याय श्रादि दर्शनों के विषय में हम विस्तार पूर्वक विवेचन दर्शन और ईश्वर प्रकरण में कर चुके हैं। न्यायके मूल सूत्रों में क्तमात ईश्वर के लिये स्थान नहीं है । न्यायदर्शन के प्राचार्यों में • सम्पादाय हैं। १ ईश्वरबादी. अनीश्वरवादी । अनीश्वरवादी के