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अनुकुल वह जिस पदार्थ को पाने की इच्छा करता है वहां वह पहुंच जाता है.
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"कामात्यः कामयते मन्यमानः समभिर्जयिते तत्र तत्र " - मुण्डकोपनिषद् ३-२-२
अर्थात् - जिस २ वस्तु की कामना से यह आत्मा शरीरको बोता है योनि या स्थान आदिमं जन्म लेकर पहुंच जाता है। " तदेव शक्रः म कति लिङ्ग मनो यत्र विक्रमश्र ।"
वृहदारण्यकोपनिषद् ४-४-६
अर्थात् यह श्रात्मा जिस पर अनुराग करता है यह कर्म (लिङ्ग शरीर ) आत्माको उसी जगह ले जाता है। यही बात गीता में कही गई है।
"यं यं वापिस्मरन भावं त्यजत्यन्ते कलेवरं ।
तं तमेवेति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः ॥ "
अर्थात् श्रात्मा जिस २ भाव से प्रभावित होकर शरीरका त्याग करता है । उसी भावको दूसरे जन्म में प्राप्त हो जाता है ।
कर्मफल और ईश्वर
ऊपर हम यह सिद्ध कर चुके हैं कि वैदिक साहित्य में भी ईश्वर को कर्मफल दाता नहीं माना है । अत्र हम तर्क द्वारा इसकी परीक्षा करते हैं कि ईश्वर कर्मफल दाता है या नहीं। इसके लिये बा० सम्पूर्णानन्द जी ने चिदविलास में बहुत ही अच्छा लिखा है आप लिखते हैं कि
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• कौन सा काम झा व कौन बुरा है" इसका निर्णय ईश्वर अपनी स्वतन्त्र इच्छा से करता है या इस बात की समीक्षा