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पूरे परिश्रमके साथ आचरण होता है तो वही कृत कहलाता है। इसी भात्रको मनुस्मृतिकारने स्पष्ट किया है
कुतं त्रेता युगं चैव द्वापरं कलि रेव च । राज्ञो वृत्तानि सर्वाणि गजा हि युग मुच्यते ।।
. . . . . . .. . अ.. | ३०१ काल प्रसुप्तो भवति स. जाग्रदू-द्वापर युगम् ।। कर्म स्वभ्युद्यत स्वेता विचरेस्तु कृतं युगम् ॥ ३०२॥
अर्थात् कृत (सत्ययुग ) वेता श्रादि युग सब राजा के आचारणों के नाम हैं वास्तव में राजा ही का नाम युग है ।, जब वह ( राजो) पाल्सी रहता है । अथव ।कुकर्मों में फंस कर प्रजा की रक्षा श्रादि नहीं करता तो वह कलियुग है अर्थात् उस राजमें कलियुग कहा जाता है । जब वह जागता है तो द्वापर हो जाता . : -...-: -: -- ___ श्री स्वामी दयानन्दजी युगोंका यही नर्थ करते थे, जन मेलाचोंदापुर में शास्त्रार्थ हुंना तो स्वामीजी ने ऐतरेया के इसी प्रमाणकी देकर लिखा है ।
"हम श्रार्थ लोग युगोकी व्यवस्था इस प्रकारसे नहीं मानते, इसमें प्रमाण
कलिः शयानो भवति समिहानन्नु द्वापरः। उनिष्ठ स्त्रेता भवति कृत सम्पद्यते चरम् || ऐतरेय बा ११५॥
अर्थात् जो पुरुष सर्वथा अधर्म करता है और नाम मात्र धर्म करता है, उनको कलि, और जो आधा धर्म, और और अधर्म करता है उसको द्रास, और जो एक हिस्सा अधर्म और तीन हिस्से धर्म करता है, उसको श्रेता, और जो सर्वथा धर्म करता है उसको सल्वयुग कहते हैं।
सत्यधर्म विचार ..-.
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