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करती थी. धनाढ्य जुवारी लोग इनको जूवा खेलने के लिए अपने पास रखते थे। बहेड़े की लकड़ी के बने हुए ५३ पासोंसे यह खेला जाता था, एक से पाश्च सक के पासे 'अयन कहलाते थे. इनमें पांचवां पासा कलि कहलाता था । तैत्तरीय प्रा० ११५११२१
जिसके पास कृत अर्थात् चारका अयन भाता था उसीकी विजय होती थी और पाँच वाले की हार इसी लिए ऋग्वेद मंडल, १ सूत्र १ में कृतका अयम पाने वाले जुवारीसे उरनेका उपदेश दिया गया है। तथा च निरुक्तकार बास्सने भी यही सलाह दी है । नि. ३ । १६ इन जुओंमें बभ्र, मामका जुषा सबसे भयानक होता था। यजुर्वेद अध्याय ३० मात्र १८ में
अक्षराजाय निसनम् कृतीयादिनकर नेतायै कस्पिनर द्वापरावाधिकल्पिनमास्कादाय समा स्थागुम् ।
इसका अर्थ है कि जूवेके लिए जुवारीको, अब ये जुवारी कितने प्रकार के होते थे ग्रह अागे बसलाया है। संबले बहिवा जुवारीका नाम कितव' था यह कृतका अयन जीतने वाला बड़ा चालाक होता था। उससे नीचे दों के जुवारीका नाम 'नवपर्श'
और उससे छोटेका नाम 'कल्पी' यह वेता चिन्ह वाले पालेको जाता था तथा उससे छादेको अधिकल्पी' कहते के, इस सूबेका वर्णन अथर्ववेद का० ४ सूत्र ३८ तथा का ७ सूत्र ५२-१४४ में दस्रने योग्य है। जब इस जुवेने भयानक रूप धारण कर लिया, सब इसके नियमोंका आविष्कार हुआ. परन्तु इसने पर भी इसकी वृद्धि न रुकी तो इसका निषध किया गया ।
"अक्षेर्मादीव्य कृषिमित्कृषस्न" (ऋग्वेद)
जब इसका भी कुछ प्रभाव न छुआ तो इसको पापकी रूप दिया गया । तथा इसके लिये एका विधान हुश्रा । अस्सु प्रकृत