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(१२२ ) कहते हैं कि मनुष्य जैसी श्रद्धा, संकल्प व विचार करता है उसी प्रकार का उस का सूक्ष्म व स्थूल शरीर बनता है. और जैसा स्थूल, सूक्ष्म शरीरादि होता है उसी प्रकार का उस के आस-पास का वायु मंडल भी हो जाता है। अतः वह तदाकार हो जाता है भगवान कृष्ण प्रागे कहने हैं:
"ध्यायतो विषयान पंसः संमस्तेषपजायते । . संगात् संजायते कामः कामाक्रोधोऽभिजायते ।। क्रोधाद्भवनि संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रंशात् बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ॥"
... ... -गीता न. ५, श्लोक ६२-६३ विषयों के चिन्तन से पुरुष इन विषय के साथ संग करता है उस से वासना राग द्वेष इच्छादि उत्पन्न होती है अर्थात अमुक पदार्थ प्राप्त होना ही चाहिए ऐसी कामना उत्पन्न होती है। इस कामनाकी पूर्ति के लिए प्रयत्न करता है। यदि उसकी प्राप्ति न हो तो उसके मृदयमें क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से मोह (अविवेक) होता है मोह से उसका स्मृति विभ्रम होता है, और उससे बुद्धि का नाश होता है। बुद्धि का नाश होने से प्रात्माका सर्वस्व नाश हो जाता है । यह स्वगत प्रतिक्रियाका फल है।
कर्मके अन्य प्रकारसे भी २ विभाग किए हैं ? पुण्य ५ पाप पुण्य का फल सुख और प.पका फल दुःख होता है।
सुख दुःख का लक्षण करते हुए न्यायाचाोंने कहा है किअनुकूल वेदनीयं सुखं प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम् ।
अर्थात्-श्रोत्माके अनुकूल जो वेदना होती है उसे मुख कहते हैं और प्रतिकूल वेदनाको दुःस्त्र ।
विचारणीय विषय यह है कि अनुकूलता और प्रतिकूलता