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भी लिया है। उन्होंने यह सिद्ध किया है कि यह चित्र समस्त संसारमें व्याप्त हो जाते हैं। इन मित्रों का नाम जैनदर्शनकी परिभाषामें "कार्माण वर्गणा" है. और ये लोकाकाशमें व्याप्त हैं। ___जब कोई प्रात्मा किसी तरहका संकल्प-विकल्प करता है तो उसी जातिकी कार्माण पर्गरणाएं उस आत्माके ऊपर एकत्रित हो जाती है। इसीको जैन शास्त्रोंमें “मानव" कहा गया है ये ही कार्माण वर्गणाएँ जन्म आत्मा के साथ चिपक जाती हैं तो वह प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अमुभाग बंध रूपसे आत्माको जकड़ लेती हैं, इसीका नाम द्रव्यकर्म' है । इसी द्रव्य कर्मोके शानावररणादि माठ () भेद हैं जो आत्माकी आठ मुख्य शक्तियों को या तो विकृत करते हैं या आवरण करते हैं। इनका अतिसूक्ष्म और विस्तारपूर्वक मनन करनेके लिए जैनशास्त्रोंका स्वाध्याय नितान्त भावश्यक है।
कर्म, फल कैसे देते हैं ? कर्म, फल कैसे देसे हैं ? इस के जानने के लिए यह जानना आवश्यक है कि फल किसे कहते हैं ? ___ यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है । कर्म भी एक क्रिया है, अतः उसकी भी प्रतिक्रिया होती है । ये प्रतिक्रियाएँ अनेक प्रकारकी होती हैं । यथा-इस कर्मरूपी क्रिया की दो प्रकार की प्रतिक्रियाएँ होंगी-(१) स्वगत (२) परगत।
जिस क्रियाका प्रभाव हमारी पारमा, सूक्ष्म व स्थूल शरीर पर पड़ता है यह स्वगत प्रतिक्रिया है। जैसा कि शास्त्रकारों ने लिखा है- यो यः स एव सः"। भगवान कृष्ण गीतामें