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( ५०० ) सारांश यह है कि नवीन न प्राचीन सभी स्वतन्त्र विधारकों ने सांख्य और मीमांसादर्शन को अनीश्वरवादी माना है यहां पमपुराणका श्लोक बड़े महत्वका है उससे यह स्पष्ट होगया है कि जैमिनि ने वेदोंके अर्थोंको लेकर यह शास्त्र अनीश्वर वादात्मक रचा है इस श्लोकने वेदोंमें भी ईश्वरवाद का खंडनकर दिया है। यहतो हुई मीमांसा की बहिरंग परीक्षा तथा इसकी अन्तरंग परीक्षाके प्रमाए हम प्रारंभमें ही दे चुके हैं अतः यह सिद्ध है कि मीमांसा और घेद दोनों में वर्तमान ईश्वरके लिये कोई स्थान नहीं है।
नीत पाण्डेय रामावतार शर्मा एम.प.ओ.एलने अपनी पुस्तक 'मागीय ईश्वस्त्रा में लेका . __ "पृथ्वी.स्वर्ग और नरकके उपयुक्त विचारोंके रहते भी संहिता में सृष्टि परक स्पष्ट विवरण नहीं मिलते ।
इस सम्बन्धके जो कुछ वर्णन रूपकोंमें कथित है उनके शाब्दिकार्थों से निश्चित् अभिप्राय निकालना आज कठिन है मन्त्रों में पिता-माता द्वारा सृजनके सहश्य उल्लेख है और जिन देवतानों से विश्व का धारण किया जामा वर्णित है. उनकी भी उत्पत्तिके संकेत दिये गये है। .......
पुरुष, हिरण्यगर्भ. प्रजापति, उत्तानपाद श्रादि सूक्तों में जो लिने गये हैं. उनमें सृष्टि विषयक अस्फुट पाते हैं। जिनको श्राशर बनाकर साक्षणकालमें पूथियीके बननेके सम्बन्धम वराह कच्छप आदिके आख्यान उपन्यस्त किये गये।"
इस प्रकार सभी स्वतन्त्र विचारक विद्वान इसी परिणाम पर पहुंचे हैं। अतः स्पष्ट है कि संहिताओंमें न तो वर्तमान ईश्वरका वर्णन है और न सृष्टि उत्पत्ति श्रादिका ।