________________
किया है अतः यहां भी ब्रह्म शब्द से अात्मा अभिप्रेत है। इसी प्रकार जैन शास्त्रों में भी आत्म ज्ञान का उपदेश है ।
सिद्धः शुद्धात्मा सर्वज्ञः सर्वलोक दर्शी च । स जिनवर भणितः जानीहि त केवलज्ञानम् ।। अष्टपाहुड़ यथानाम कोऽपि पुरुषो सजानं ज्ञात्या अद्दधाति । ततस्तमनु चरति पुनाधिकः प्रयत्लेन ।॥ २० ॥ एवं हि जीव राजो ज्ञातव्यस्तैथव श्रद्धातव्यः । अनु चरितव्यश्च पुनः स चैव तु मोक्षकामेन ॥ २१ ॥ तथा च स्मृति में है किमात्मा का देवता सर्वाः । मनु अ० १२ एतमेके वदन्त्यनि मनु मन्ये प्रजापतिम् । इन्द्रौके परे प्राणमपरे ब्रह्म शाश्वतम् ।। मनु०अ०१२१६
अर्थान् अत्मा ही सर्व देव रूप है, इसी आत्मा को विद्वान, अग्नि. मनु. प्रजापति. इन्द्र, प्राण. ब्रह्म. शास्वत आदि नामों स कथन करते हैं। शरीरं यदवामोति य चाप्युत्क्रामतीश्वरः ॥ गीता, अ०१५ इस श्लोक का भाष्य करते हुये श्री शङ्कराचार्यजा ने लिखा है।
"ईश्वरः, देहादि संघात स्वामी जोकः" अर्थात यहां 'ईश्वरका अर्थ देहादि संघातका स्वामी जीव' है, अतः सर्व शास्त्र एक मत से ब्रह्म का अर्थ प्रारमा करते हैं। वर्तमान इसलिये कालीन ईश्वर को रचना वैदिक समयमें नहीं हुई थी, अतः उसका कथन भी पैनिक बांगमय में नहीं मिलता। इस लिथ यहाँ अात्माका ही कथन है।