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तथा प्रमाद उसमें बिलकुल नहीं है इसके विपरीत धर्म ज्ञान तथा समाथि सम्पदा से वह पूर्णतया युक्त है। अर्थात् धर्मज्ञान, और समाधि विशिष्ट आत्मा ही वास्तव में ईश्वर है। धर्म तथा समाधि के फलस्वरूप आणिमा आदि आठ प्रकार का ऐश्वर्य उसके पास हैं ईश्वरको धर्म संकल्प मात्र से उत्पन्न होता है किसी प्रकार के क्रियानुष्ठानसे नहीं । ईश्वरका वह धर्म ही प्रत्येक धर्मा धर्म संचयको तथा पृथिवी आदि भूतोंको प्रवर्ताता है- अर्थात प्रवृत्ति कराता है इस प्रकार स्वीकार करने से स्वकृताभ्यगमका लोप न होकर ईश्वरको सृष्टि निर्माणादि कार्य स्वकृत कर्मका फल ही जानना चाहिये ।
ब्रह्म का खण्डन और ईश्वरका समर्थन
भाष्यकार ब्रह्मका खंडन और ईश्वर का समर्थन करते हुए कहते हैं कि-
" न तावदस्य बुद्धि विना कश्विद्धर्मो लिङ्गभृतः शक्य उपपादयितुम् बुद्धधादिभिश्वात्मलिङ्ग निरुपाख्यमीश्वरं प्रत्यचानुमानागम विषयातीतं कः शक्तः उपपादयितुम् । स्वकृताभ्यागमलोपेन च प्रवर्तमानस्यास्य यदुक्तं प्रतिषेध जातं । अक्रम निमित्ते शरीरसमें तत्सर्वं प्रसज्यते ।
अर्थ- बुद्धिके अतिरिक्त और कोई धर्म ईश्वरकी उपपत्ति या सिद्धि करनेमें लिङ्ग हेतु नहीं बन सकता। ब्रह्म तो बुद्धि आदि
माने नहीं जाते. फिर बतलाइये प्रत्यक्ष, अनुमान और श्रागम के सर्वधा अविषय भूत ब्रह्मकी कौन सिद्धि कर सकता है। तथा उसमें सृष्टिजनक स्वकृतधर्मरूप कर्मका अभ्यागम स्वीकार नहीं किया गया फलतः अकर्मनिमित्तक शरीर सर्गकी मान्यता में जितने