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मात्र के लिए अन्यान्य दर्शनोंके पूर्व पक्षी रूपमें प्रतिनिधि माने गये हैं। भारतीय संस्कृति में स्वरूपतः सम्प्रदाय रूपमें जिनकी कहीं सत्ता नहीं है जिनका कोई सूत्र ग्रन्थ भी नहीं है. पुराणों में जिनके दर्शनके प्रचारका कारण भी निन्दित ही बताया गया है-अन्य सभी बौद्ध तथा जैन दार्शनिक भी आस्तिक कोटिसें आ जाते हैं । परस्पर एक दूसरे को नास्तिक कहना तो भारतकी पराश्रीनावस्था में फैला है। भूतकाल के विद्वानोंमें परस्पर मतभेद होत हुए भी इस तरह गैर नहीं चलता था जैसा कि इरके कानों में होने लगा है। देखिये बौद्धोंकी ओर से व्यङ्ग-योक्ति है
"वेदे माग कस्य चित्कतृ वादः स्नाने धर्मेच्या जातिवादावलेपः। सन्ताने हा पापहानायचेति ध्वस्तप्रज्ञानां
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पञ्चचिह्नानि जाड्ये ।"
अर्थात् वेदकी प्रमाणता, किसीको— ईश्वरको कर्त्तामानना जातिवादका गर्न पापका प्रायश्चित इत्यादि मूखोंके लक्षण हैं।
इस लेखक) निष्कर्ष यह है कि संक्षेपमें धास्तिक-नास्तिक शब्दों के अर्थ में चार प्रकार के विचार संस्कृत वाङ्गमय महार्णव में पाये गये हैं।
वेद काल में, सर्व साधारण में, प्रसिद्ध अर्थ --- परलोक मानने बाला आस्तिक और न मानने वाला नास्तिक कहा जाता है ।
(२) दर्शनिकों में जो जगत्का कारण सन् (भाव) माना है. वह श्रास्तिक और जो असत् (अभाव) को जगत्का कारण मानता। है वह नास्तिक (प्रभाव वादी) वैनाशिक कहा जाता है।
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(३) मनु आदि स्मृतिकाल में जो वेदको माने वह आस्तिक और जो न माने उसकी निन्दा करें वह नास्तिक कहा जाता है । (४) आज कल जो ईश्वर परमेश्वर, माने वह आस्तिक श्रीर जो न माने वह नास्तिक कहा जाता है ।
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