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प्लवा
श्रढ़ा यज्ञरूपा, अष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म । एतच्छु यो येऽभिनन्दन्ति मृदा जरामृत्यु' ते पुनरेवापि यन्ति || ७ || सुएडोपनि० १
are वेद ! यह तेरी यश रूप नौकातो पत्थर की नौका है. वह भी जीर्ण शीर्ष है। तेरे जैसे मूर्ख जो इसको कल्याण कारक समझकर आनन्दित होते हैं, वे इस संसार रूपी सागर में जन्म मरण रूप गोते खाते रहते हैं । इसी उपनिषद् गीताकी तरह ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेदको अपरा (सांसारिक) विद्या कहा है यथा"तत्रापराग्वेद, यजुर्वेदः सामवेदो अथर्ववेद: ।"
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अन्य अनेक स्थानों पर भी ऐसा ही मत है। अतः उपनिषद् कार भी वेदों को मुक्तिका साधन नहीं मानते। तथा वैदिक क्रिया काकी निन्दा करते हैं ।
कपिल मुनि और वेद
ऋग्न मं० १० सू०२७ । १६ में लिखा है कि
" दशानामेकं कपिलं समानम् ।"
अर्थात् दस अंगिरसोंमें कपिल श्रेष्ठ हैं उस कपिलके विषय में महाभारत शांति पर्व ० २६८ में गाय और कपिलका संवाद है । उस समय यज्ञोंमें गो बध होता था, गौ ने आकर कपिल मुनि से अपनी रक्षाकी प्रार्थना की। इस पर कपिलने दुःखित हृदयसे कहा कि बाहरे बेद ! मैंने हिंसाको ही धर्म बना दिया यही नहीं अपितु उन्होंने अपनी स्पष्ट घोषणा की कि हिंसा युक्त धर्म धर्म नहीं हो सकता चाहे वह वेदने ही क्यों न कहा हो। उन्होंने इस