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नास्तिक है । यदि चार शाखाओं को ही वेद मानलें तो भी सभी वेदानुयायी नास्तिक ठहरते हैं। क्योंकि पूर्व के प्राचार्य अथर्ववेद को तो वेद नहीं मानते, वे तो तीन ही घेद स्वीकार करते हैं। मनुस्मृति भी उसी सम्प्रदाय की है। तीनों वेदोंमें भी यजुर्वेदी. सामवेद. की निन्दा करते हैं तथा सामवेदी यजुर्वेदकी। जैसे कि मनुस्मृतिमें ही सामवेदकी निन्दा की है। सामवेदः स्मृतः पिच्या, तस्माद तस्या शुचिर्ध्वनिः ॥
भं०४ ।। १२४ यहाँ सामवेदकी श्वनि लक को अपवित्र माना है। परन्तु गीताके श्र१० में "वेदानां सामवेदोऽस्मि" कह कर अन्य चेदोंसे सामवेदकी श्रेष्ठता दिखलाई है । अतः ये एक दूसरे बेदकी निन्दा के कारण स्वयं नास्तिक बनते हैं।
गीता और वेद गीता अध्याय शोक २६ में "शुक्ल-कृष्ण-गती ोत" में दो गतियों का कथन किया है। प्रागे लिखा है-वेदेषु यन्त्रेषुतपः. सुधैव" अर्थात् वेदोंमें (बेदादि पढ़ने में ) तम. दानादि में जो पुण्य कहा है योगी उन सबको जानकर (इनकी निस्सारताको जानकर) वह इनका उल्लंघन कर जाता है। यहां वेदादिके पठनको भी कृष्ण मार्ग कहा है । तथा अध्याय ११ में "नाई वेदैन तपसा" कह कर वेदोंकी गौणता दिखाई है। और अध्याय १५ के प्रारम्भ में ही वेदोंको संसाररूपी वृक्ष के पत्ते बताकर वेदोंको संसारकी शोभा मात्र अथवा संसारको बढ़ाने वाला कहा है। तथा च अ. ह में विद्या मो सोमपाः' कह कर तीनों वेदोंका फल स्वर्ग कहा है तथा जष पुण्य समाप्त होजाते हैं तो वहांसे वापिस भी आजाता है, कह कर वेदोंको मुक्ति के लिये अनुपयुक्त कहा है. तथा अ.२ में