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यामिमा पुश्यितां वाचं अवदन्त्यविपश्चितः । वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ।। ४२ ।।
अर्थात हे अर्जुन ! जो वेद वाक्यमें रत हैं वे स्वर्गादिकसेभिन्न मुक्ति को नहीं मानते. वे अविवेकीजन लुभाने वाली जन रंजनके लिये विस्तारपूर्वक संसारमें फंसाने वाली शोभायमान वाणी बोलत हैं । अत: हे अर्जुन ! त्रैगुण्या विषया वेदा निस्त्रगुण्यो भवाजुन ।" संसारमें बांधकर रखने के लिये वेद तीन गुण रूपी रस्सी है,तू इससे मुक्ति पाकर त्रिगुणातीत होजा। आगे कहा कि
"श्रति विप्रतिपना ते यदा स्थास्यति निश्चला।" हे अर्जुन : जब अनेक श्रुतियोंसे (परस्पर विरूद्ध वेद मन्त्रों के सुननेसे) विचलति हुई बुद्धि परमात्मा (शुद्धात्मा ) के स्वरूप में अचल ठहर जायगी, तब तू समत्वरूप योगको प्राप्त होगा। गीताके उपरोक्त शब्द इतने स्पष्ट हैं कि उनपर प्रकाश डालनेकी आवश्यकता ही नहीं है । यही कारण था कि स्वामी दयानन्दजी गीताको त्रिदोषज सन्निपातका प्रलाप कहते थे 1 के अभिप्राय यह है कि वेद-निन्दकको नास्तिक कहा जाय तो सम्पूर्ण हिन्दू जनता तथा आर्यसमाज भी नास्तिकोंकी श्रेणीमें आ जायेगा ।
उपनिषद् और वेद (१) ऋग्वेद मं० १० सू०४४ मं०६. में लिखा है कि"न ये शेकुझिया नावमारुह, मीमव ते न्यविशन्तकेपयः।" ___ जो यज्ञ रूप नौका पर सवार न हो सके, वे कुकर्मा हैं, शृणी हैं और नीच अवस्थामें ही दब गये हैं।
इसका उत्तर उपनिषद्कार ऋषि देते हैं कि१ देवेन्द्रनाथजी लिखित स्वामीजीका जीवन चरित्र देखें पृ२०३-२०४