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( ५६७ ) वेद अनेक ऋषिपोंके जाताये हुये हैं। * इसगुणको छिपा कर ये वेदोंको ईश्वरीय शान अथवा ईश्वर रघिस या निस्य कह कर निन्दा करते हैं। ४
(२) वेदों में इतिहास है, ये कहते हैं कि इतिहास नहीं है। (३) बोदोंमें मृतक श्राद्धका वर्णन है. ये कहते कि नहीं हैं।
(४) वेदों में स्वर्ग. नरक आदि लोक विशेष माने हैं. ये विरोध करते हैं।
(५) बोट कहता है, मुक्तिसे पुनरावृत्ति नहीं होती, ये कहते हैं होती है।
(६) वेदमें अद्वैतवादका मंडन है ये उसे नास्तिक कहते हैं।
* वेदत्रयोक्ताय धर्मास्तेऽनुश्टेयास्तु सात्विक । अधर्मोऽथर्व वेदोक्तो राजसै सामसैः श्चितः॥६३॥ (श्री शंकराचार्य बन्चित सर्व दर्शन संग्रह) अर्थ, सात्विपुरुपको वेदवत्रीमें कथन कियेहुए, धर्मका पालन करना चाहिए तथा राजसी ओर तामसी लोगोंको अथर्ववेदमें कहे हुए. अधर्मका पालन करना चाहिये ।। यहां स्पष्ट ही अथर्व बेदकी घोर निन्दा है। ज्ञात होता है यह अनार्य लोगोंका ग्रन्थ था | अनाओं के सहवास से श्रयों ने भी बादमें इसको अपना लिया। ___x बा० उमेशचन्द्र विद्यारत्न ने ऋग्वेद के उपोद्घात प्रकरण के पृ० ६१ पर कौपीति की ब्राहाण का निम्न वाक्य उद्धत किया है । जिसका अर्थ है कि
सामवेद और यजुर्वेद ऋग्वेदके सेवक हैं। मैक्समूलरने भी इसी प्रमाणको उद्धृत किया है...
These two Vedas, the Yajur Veda and the Sam what they arc Called in the Kaushitaki Brabman the attendents of the Rigveda
(S. T. Vol. II, P. 203)