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( यथा - हि आरम्भवादः कणभक्षवतः सांख्यादि पक्षः परिणामवादः | संघातवादस्तु भदन्तपक्षः, वेदान्त पक्षस्तु त्रिवर्तवादः - सर्वमुनिका संक्षेप शारीरिक ) |
सर्वथावेद के दार्शनिक सिद्धान्तोंको व्यक्त करनेके लिये तां व्यास ही अग्रसर माने गये हैं। बल्कि देखा जाय तो 'reraigaon ' 'ह्यविशुद्धि तयाति शययुक्तः' इत्यादि युक्तियों से सांख्य वाले तोहके हेतुओं का भी तिरस्कार ही करते हैं। ऐसा ही
'वैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवाजुन'
व्यासजी ने भी कहा है कि इन दोनों स्थानोंपर आनुश्रविक' और 'वेद' शब्दोंके अर्थ में संकोच करके क्रमशः कर्म कांडान्तर्गत वैदिक तथा कर्मकाण्ड मात्र वेदके लिये कहा गया है, ऐसा आधुनिक विद्वान अर्थ करते हैं। पर वेद पर एक प्रकारसे प्रहार तो हुआ हीं चाहे उसके किसी एक अंग परी हुआ तो क्या श्रस्तु यह तो मानना ही पड़ेगा कि सभी दार्शनिक वेदके अक्षरशः पोषक नहीं हैं। कुछ लोग तो बेत्रको केवल अपने तर्ककी पुष्टिके लिये मान लेते हैं। चार्वाक के ऐसा
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'यो वेदस्य कर्त्ता माडर्त निशाचराः'
कहकर दिल्लगी नहीं उड़ाते यहीं उनकी विशेषता है।
इन : दार्शनिकों में केबल वादरायणाचार्य और अमिनि है जो वेद मन्त्र पुष्पों में अपने सूत्रोको पिरोकर वैदिकाचार्यकी एक अच्छी सुव्यवस्थित मालाके रूपमें अपने दर्शनोंको उपस्थित करते हैं। यह दूसरी बात है कि बेकी ऋचाओं पर इन सभी दार्शनिकों का मन अवलम्बित हैं जैसे—