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( ५८ ) इसका आशय केवल यही होता है कि उस दर्शनके सिद्धान्त में उस पदार्थकी आवश्यकता नहीं है. क्योंकि संस्कृत शास्त्रोंको 'यत्परः शब्दः स शब्दार्थःहीकी शैली मानी गई है । यही बात विज्ञान भिन्तुने भी अपने सांख्य प्रवचनकी भूमिकायें कहीं है__नम्मादास्तिकदर्शनेए न कस्याप्यप्रामाण्यं विरोधो वा स्वस्त्रविषयेषु सर्वेषाम्बाधत अविरोधा"
अर्थान्-श्रास्तिक दर्शनों में अपने अपने विषयोंमें बाधाभात्र और अविरोध होने के कारण किसी में भी अप्रमाण्य और विरोध नहीं है। तभी तो जैमिनिकी खास पूर्व मीमांसामें ईश्वरका उल्लेख नहीं है, बल्कि मीमांजक लोग तो किमन्तर्गडुना ईश्वरेण' कह कर ईश्वरका खंडन ही करते हैं। उनके विषयमें कर्मेति मीमांसका:ऐसी ही प्रसिद्धि है । हरि भद्रसूरिने भी पडदर्शन समुन्वयमें पूर्व मीमांसकोंको निरीश्वर वादी ही बताया है। जैसे---
"जैमिनीयाः पुनः प्राहुः सर्वज्ञादि विशेषणः । देवो न विद्यते कोपि यम्यमानं वचो भवेत् ॥" __अर्थान्-जैमनीय मतके मानने वाले मीमांसक कहते हैं कि सर्वन, विभु नित्य इत्यादि विशेषणों वाला कोई देव (ईश्वर) तो है नहीं जिसका बचन प्रसाण मान लें ।
कुमारिल भट्टने भी कहा है कि"अथापि बेदहेतुत्वाद् ब्रह्मविष्णु महेश्वराः । कामं भवन्तु सर्वज्ञाः सार्वज्ञं मानुषस्य किम् ।।"
वेदकी रचना करनेके कारण ब्रह्मा, विष्णु, और महेश्वर सर्वज्ञ भले माने जाण: परन्तु मनुष्यकी सर्वज्ञता किस कामकी है । पर वेदान्त सूत्र में वादरायणाचार्य (व्यास) ने ईश्वर शब्दसे तो