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। ५६६ ) उससे भी यही साबित होता है कि आत्मासे उनका मतलष जीव से है। अपने सारे दर्शनमें अक्षपादका ईश्वर पर कोई जोर नहीं है। और न ईश्वर वाले प्रकरण को हटा देनेसे उनके दर्शनमें कोई कमी र जाती है । जी भारत काय सूनों में यदि क्षेपक हुए हैं तो उनमें इन तीन सूत्रोंको भी ले सकते हैं। जिनमें ईश्वर की सत्ता सिद्धकी गई है। डा. सतीशचंद्र विद्याभूषणने जहां न्याय सूत्रके बहुतसे भागको पाछेका क्षपक मान लिया है फिर इन तीन सूत्रीका क्षेपक होना बहुत ज्यादा नहीं है" ।
अर्थात्---आपके मतमें ये तीन सूत्र जिनमें ईश्वरका कथन है प्रक्षिप्त हैं । हमारी अपनी धारणा यह है कि ईश्वरका अर्थ परमेश्वर नहीं है अपितु मीमांसाका अपूर्व तथा शैशेषिक का अदृष्ट ही न्याय दर्शनका ईश्वर है। क्योंकि संपूर्णदर्शनको यदि विचार दृष्टि से देखा जाय तो यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि न्यायदर्शन में भी ईश्वर के लिए कोई स्थान नहीं है. उसके निम्न कारण हैं ।
(१) प्रमेय न्यायाचार्य ने जब प्रमेय गिनायें तो उनमें ईश्वर के लिये कोई स्थान नहीं रखा । इससे सिद्ध होता है कि गौतममुनि की दृष्टिमें ईश्वर प्रमेय नहीं है, अर्थात् न तो बह शानका विषय है, और न उसका तत्व जाना जासकता है :. वादके नैयायिकोंने भाष्य आदि में आत्माके अन्तरगत ही ईश्चरको माना है इसलिये न्याय दर्शनमें आत्माका क्या स्वरूप है, यह जानना आवश्यक है। अतः हम उसका वर्णन करने हैं ।
नोट-प्रमेय १२ हैं, प्रमा विषयत्वं । अथवा यो, अर्थ: तत्वतः प्रमीयते तत्प्रमेयम् ।।
अर्थान--को ज्ञान (बुद्धि) का विषय हो या जिसको तत्वतः जाना जाय वह प्रमेय है।