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श्रीमान पं० हरिदत्त जी शर्मा त्रिवेदी अमृतसरने रहस्य लहरी नामसे देश उपनिषद्का भाग्य किया है उसमें आप लिखते हैं कि "ईश्वरः कारणम्" तत्कारित्वाद हेतुः ||११|| इन सूत्रोंके वात्स्यायन भाष्य में ईश्वरका अर्थ जीव विशेष किया है ।
वहां लिखा है कि "नात्म कल्पादन्यः कल्पोऽस्ति" अर्थात जीव वर्गसे भिन्न वर्गका कोई ईश्वर विशेष नहीं है किसी योग यदि सामर्थ्य से धर्म ज्ञान वैराग्य जिसमें सबसे अधिक होगया है उससे यह सब व्याप्त है जी योगी जी के कर भोग करो 'ईशावास्य' इस श्रुतिका यह अभिप्राय है' अतः यह सिद्ध है कि न्याय दर्शनमें तथा वैदिकवांगमय में मुक्तात्माओं को ही परमात्मा, ब्रह्म ईश आदि नामोंसे संबोधित किया है।
आत्मा
न्यायदर्शनकी आत्मामें तथा वैशेषिक की आत्मा में कुछ भी भेद नहीं है । अर्थात् दोनों दर्शनों में आत्मा का स्वरूप एकसा है। न्यायका सिद्धान्त है कि
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शरीरेन्द्रिय बुद्धिभ्यः पृथगात्मावि सुधु वः ॥
अर्थात- शरीर इन्द्रिय बुद्धिसे प्रथक आत्मा है और विभु है तथा नित्य है । यहाँ प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जब आत्मा विभु है तब यह शरीर से संबंधित कैसे है। इसका उत्तर नयाचिक देते हैं कि
" पूर्वकृत फलानुबन्धात् ।"
अर्थात् पूर्वकर्मानुसार यह शरीर धारण करता है। इनका कहना हैं कि शरीर के साथ सम्बन्ध होने पर भी आत्मा का विभुपना बना रहता हूँ । यहाँ विमुका अर्थ सर्वव्यापक नहीं हैं । नैया