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यिक आत्माको जड़ पदार्थों में व्यापक नहीं मानते। अतः यहां प्रश्न होता है कि जीव एक हैं या अनेक इसका उत्तर ये लोग देसे हैं कि
"जोवस्तु प्रतिशरीरं भिन्नः।" अर्थात्- प्रत्येक शरीरका जीव भिन्न भिन्न है । सूत्रकारने इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान ये अात्माके चिह्न बत. लाए हैं। ये सब गुण औपाधिक हैं, अात्मा स्वभावसे न चैतन्य म ज्ञानवान् ।
अतः इन औपाधिक गुणोंके नाश होनेका नाम ही इनके मत में मुक्ति है। श्री हर्षने, नैषधमें लिखा है कि
मुक्तये या शिलास्वाय शास्त्रमूचे सचेतसाम् । गौतमस्त्वर्थ वत्येव यथानित्य स्तथैव सः ।।
अर्थात्- मोक्षमें जीवोंको पत्थर मनाने के लिए जिसने न्याय शास्त्र बनाया है. वह नामसे ही गोतम नहीं है । अर्थात् यह गोनम नाम उसका सार्थक है। अतः यह सिद्ध है कि न्याय दर्शनका आत्मा ईश्वर नहीं हो सकता ! तथा पाल्माके दो भेद (जीवात्मा और ईश्वर ) सूचकारने कहीं भी नहीं किये. यदि सूत्रकार की ईश्वरकी सिद्धि अभीष्ट होती तो अवश्य उसको प्रमेयोंमें लिखकर प्रमेय ५३ अनाते अथवा आरमाके ही दो भदों का जिकर करते । परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। अतः यह सिद्ध है कि मूत्रकार को ईश्वरकी मान्यता स्वीकार नहीं थी।
(२) बुद्धि, सत्रकारने कहीं भी दो प्रकारकी बुद्धिका कथन नहीं किया है, किन्तु जब नवीन नैयायिकोंने ईश्वरकी कल्पना की तो बुद्धिको भी दो प्रकारका माना गया, एक अनित्य बुद्धि (ज्ञान) यह जीवात्माका है, तथा दूसरी नित्य बुद्धि, यह ईश्वर की है।