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मुनि रतनचन्दजी शतावधानी लिखते हैं कि न्यायदर्शनमें जो ईश्वरका कथन है. यह सूत्रकारका अपमा मत नहीं है। अपितु उन्होंने इसके मतका बलेख मान किया है।
न्यायदर्शनकार गौतमऋषिने स्वतन्त्र रूपसे अपनी निजी मान्यता के रूपमें ईश्वरको स्वीकार नहीं किया है परन्तु चौथे अध्यायके पहले आहिकके १६ वे सबमें अन्यवादियों द्वारा स्वीकृत ईश्वर का उल्लेख किया है और अभाववादी.शून्यवादी स्वभाववादी इन सब वादियोंकी मान्यतायें तीन २ चार २ सूत्रों में दिखलाई हैं। साथ ही ईश्वरवादी की मान्यता भी तीन सत्रों में बसलाई है । सूत्रका शीपक बनाते हुये अवतरगाके रूपमें भाष्यकार वात्स्यायन भी यही कहते हैं कि 'अथापर श्राह् अर्थान अभाववादीकी ओर से अपनी मान्यता बता देने के पश्चात् अपर अर्थात् ईश्वरवादी कछता है कि
ईश्वरः कारणं पुरुषकर्माफल्यदर्शनात् (न्या० सू०४।१।१६) न पुरुषकर्माभावे फलनिष्पत्तेः । (न्या० ० ४।१२०) तत्कारित्वादहेतुः।
(न्या. मू० ४।२१) अर्थ, मनुष्यका प्रचन्न निष्फल न जाने पाय इसलिये कर्मफल प्रदाताके रूपमें ईश्वरको कारण मानना आवश्यक है।
दुसरा बादी शंका करता हैकि ---ऐसा माननेमे तो पुरुष कर्मके बिना भी फलकी प्राप्ति होगी. कारण कि ईश्वरकी इच्छा नित्य है। __ ईश्वरवादी उत्तर देता है कि पुरुषकम भी तो ईश्वर प्रेरित ही होता है अतः तुम्हारा यह हेतु हेत्वाभास है, अर्थ साधक नहीं है।