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Frater कर्मफल के रूपमें स्वीकार करने वाले ईश्वरवादी के ऊपर कहे गये तीन सूत्रोंको गौतम मुनिने अपने न्याय दर्शनमें स्थान जरूर दिया है परन्तु वे दूसरे की मान्यता के रूपमें हैं अपनी मान्यता के रूप में नहीं। इससे यही कहा जा सकता है कि पतंजलि मुनिके समान गौतमने ईश्वरवाद को स्वीकार नहीं किया है कपिल के समान निषेध भी नहीं किया है और करणादके समान इस सम्बन्ध में कुछ भी न कहने के लिये मौन भी नहीं रक्खा है । हां दूसरेकी मान्यताको अपने सन्दर्भ में मात्र स्थान दिया है यह मान्यता भाष्यकार तथा टीकाकारों को इष्ट होनेके कारण अन्यथा कहिये कि अपनी मान्यता के सम्बन्धमें अनुकूल एवं समर्थक मालूम होनेके कारण भाष्यकार तथा टीकाकार दोनों ही ने गौतम महर्षि अपनी निजी सूत्रोंके रूपमें उनपर अपनी ओरसे गहरी छाप लगा दी है। भाष्यकार वात्स्यायनने सूत्रके बिना भी स्वतन्त्र रूप में अपने न्याय भाष्य में ईश्वरका स्वरूप इस प्रकार प्रदर्शित किया है।
"गुणविशिष्टमात्मान्तरमीश्वरः । तस्यात्मकल्पात् कल्यान्तरानुपपत्तिः । अधर्ममिथ्याज्ञानप्रमादहाव्या धर्मज्ञानसमाधिसंपदा च विशिष्टमात्मान्तरमीश्वरः तस्य च धर्मसमाधिफल मणिपाद्य विधमैश्यर्य संकल्पानुविधायी arer धर्मः प्रत्यात्मवृतीन् धर्माधर्ममंत्रयान् पृथ्व्यादीनि च भूतानि प्रवर्तयति । एवं च स्वकृताभ्यागमस्या लोपेन निर्माण प्राकाम्यमीश्वरस्य स्वतकर्मफलं वेदितव्यम् ।
अर्थं गुण विशेषसे युक्त एक प्रकारका आत्मा ही ईश्वर हैं । ईश्वर आत्मतत्व से कोई पृथक वस्तु नहीं है। अधर्म मिध्याज्ञान