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( ५३० ) अल्पत्वादि प्रतिविम्ब रहेंगे वा नहीं ! यदि रहेंगे तो जीवके बने रहनेसे मुक्ति न होगी यदि मिट जायेगें तो फिरभी जीवका नाश रूपही मुक्ति हुई, और बात यह है कि जिसके मतमें अपुरुषार्थ रूप दोषोंकी प्रतीति वन्ध और उन दोषोंका नाशमुक्ति है, उसके मतमें प्रष्टव्य यह है कि औपाधिकदोषोंकी प्रतीति विम्बस्थीनाय ब्राको है अथवा प्रतिविम्ब स्थानीय जीवको वा किसी अन्यको है ? प्रथम दो विकल्मों में यह दृष्टान्त कि मालनादि दोष कृपाणाद उपाधिवश होते हैं नहीं घट सकते, क्योंकि ब्रह्म निराकार है उसका प्रतिबिम्ब नहीं हो सकता, यदि दोषोंका होना ब्रह्ममें माना जाय तो अविद्याका मानना पड़ेगा और वह प्रकाश स्वरूप होने के कारण अविद्याका श्राश्रय नहीं हो सकता, तीसरा विकल्प इस लिए ठीक नहीं कि ब्रह्मासे भिन्न जीव कोई अन्य-दृष्टा नहीं फिर प्रश्न यह है । कि अविद्या जड़ होनेके कारण स्वयं कल्पना नहीं कर सकती और जीव अपनी कल्पना इसलिए नहीं कर सकता कि आत्माश्रयका दोषका प्रसंग पाता है. यदि यह कहा जाय कि शुक्ति रजतादिकों की भांति जीव अविद्या कल्पित होने के कारण ब्रह्म ही कल्पना करनेवाला है तो ऐसा मानने पर ब्रामें अज्ञान आता है। यदि ब्राझमें अज्ञान माने तो प्रश्न यह होगा कि ब्रह्म जीवों को जानता है या नहीं ? यदि नहीं जानता तो ज्ञान पूर्वक सृष्टि नहीं रच सकता. यदि जानता है तो ब्रह्म में अविश्था बनी ही रही, क्योंकि अद्वैतवाद में विना अशानसे ब्रह्म में जानना नहीं होता, इसकथनसे मायाऔर अविद्या के विभागका खण्डन समझ लेना चाहिए क्यों कि बिना अज्ञानसे मायावाला ब्रह्मभी जीवोंको नहीं देखसकता यदि यह कहा जायकि ब्रह्माकी माया जीव दर्शन करानेकी शक्ति रखती हुई जीयाके मोहन करनेका हेतु हो सकती है तब शुद्ध अखण्ड ब्रह्म के प्रति झूठ जीवोंको दिखलानेवाली अविद्या ही माया नाम सेव्यवहत होती है अविद्या पृथक वस्त्वन्तर नहीं, यदि कहा