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हैं। अर्थात् आठवां teri और वारgai | प्रतीत होता है कि सत्यार्थ प्रकाशके लेखकके पास या तो सांख्य दर्शनकी पुस्तक नहीं श्री. या उसमें से वे पृष्ट जिनमें ईश्वर निषेधके अन्य सूत्र हैं गुभ गये थे । अन्यथा प्रथम अध्यायका एक ही सूत्र लिखकर एकदम पांच अध्याय पर जा पहुंचने का और क्या कारण हो सकता है। इसके अलावा इन सूत्रोंका अर्थ भी नितान्त गलत है, यथासूत्र है ।
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सत्तामात्राच्चेत् सर्वैश्वर्यम् ।। ५६ ।।
आपने इसका अर्थ किया है कि जो चेतनसे जगत् की उत्पत्ति हो तो जैसा परमेश्वर सर्वेश्वर्य युक्त है वैसा संसार में भी सर्वेश्वर्यका योग होना चाहिये सो नहीं है, इसलिये परमेश्वर जगनक उपादान कारण नहीं अपितु निमित्त कारण है
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इस सम्पूर्ण लेखका मूल सूत्र के साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं हैं, सूत्रमें तो इस लेखका ही खरडन है। क्योंकि सूत्रका सीधा-सादा और सरल अर्थ यह हैं कि यदि सत्ता मात्र से ही आपका ईश्वर, ईश्वर हैं, सब तो सम्पूर्ण पदार्थ ईश्वर कहलायेंगे. क्योंकि उनकी भी सत्ता है। इसमें उपादानं कारणका नहीं किन्तु निमित्त कारण का ही खरडन किया गया है। निमित्त कारण दो प्रकार के होते हैं। एक प्रेरक अर्थात कर्ता दूसरा उदासीन अर्थात् निर्पेक्ष उसको सत्तामात्र से कारण कहते हैं। प्रेरक निनित्त कारणका खण्ड इससे प्रथम के सूत्र ू किया है। इसके पश्चात् सूत्र १० में प्रत्यक्ष प्रमाण और सूत्र. २१ में अनुमान प्रमाण तथा सूत्र १६ में शब्द प्रमा द्वारा ईश्वरका खण्डन किया है। अर्थात् आचार्यने यह सिद्ध किया है कि ईश्वरकी सिद्धि में न प्रत्यक्ष तथा न अनुमान प्रमाण है और न शब्द प्रभाशा ही। क्योंकि वेदादि शास्त्रों में कल्पित ईश्वरका कहीं संकेत तकभी नहीं है। यह तो हुई पांचवें अध्याय