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कैसे होसकती हैं। ईश्वर सिद्धके लिये प्रत्यक्ष प्रमाणका आश्रय लेनेका दुःसाहस तो कट्टर से कट्टर प्रत्यक्षवादी भी नहीं करता, हां उसके लिये अनुमान या शब्द प्रमाणका ही दरवाजा खटखटाया जाता है परन्तु वहां भी ईश्वर सिद्ध के लिये स्थान नहीं है। सबसे पहले अनुमानके लिये व्याप्तिमहकी आवश्यकता है जो बिना प्रत्यक्ष के सिद्ध ही नहीं हो सकती, और प्रत्यक्ष बेचारा ईश्वरके विषय सर्वथा अन्यथा सिद्ध हैं। तब व्याप्तिग्रह सिद्ध न होनेपर अनुमान भी कैसे हो सकेगा । रहा शब्द सो वह ईश्वर के पक्ष में गवाही देने को तैयार नहीं है। क्योंकि श्रति (वेद) तो जगत्का प्रधान (प्रकृति) का कार्य बताती है। ईश्वरका विश्व विधान के लिये कोई प्रयोजन प्रतांत नहीं होता ।' आगे आप लिखते हैं कि 'इस प्रकृति पुरुषके भेद ज्ञान या ममत्वके नाशके लिये ईश्वर सिद्ध का कोई विशेष प्रयोजन नहीं है । ईश्वरकी सिद्धि उनके उद्देश्य साधनमें विशेष उपयोगी तो है नहीं हां, यह उस साधकके वित्तको ऐश्वर्य प्राप्ति की ओर आकृष्ट करके विवेकाभ्यास में विघ्न अवश्य पैदा करती है इसलिये हम देखते हैं कि सांख याचार्यने ईश्वर के में अपना समय गंवानेका कष्ट नहीं किया है।"
वास्तव में यह लेख उपरोक्त दोनों पुस्तकों का उत्तर रूप हैं । क्योंकि इसमें स्पष्ट है कि सूत्रोंमें ईश्वर की सत्ताका निषेध है । उपा दान कारणका नहीं अतः जो सन्नन इनसे उपादान कारणका निषेध बताते हैं । यह गलत है। अब रह गया प्रश्न 'अभाव' का अर्थात् सूत्रमें असिद्धि शब्द क्यों है। यदि उनको ईश्वर कानिषेध करना था तो वे 'ईश्वराभान' सूत्र रचते इसका उत्तर यह है कि यदि वे अभावान्' सूत्र रचते तो वे अपनी दार्शनिकता को बट्टा लगा लेते क्योंकि उस समय यह प्रश्न उपस्थित होता कि आपने अभाव कैसे जाना | तब पुनः उनको यही उत्तर देना पड़ता कि
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