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जाय कि विपरीत दर्शनका हेतु अविद्या है और मामेव जो मिथ्या जगत है इसको माया मिध्या ही दिखलाती है इसलिए विपरीत दर्शनका हेतु न होनेसे मायाको अबिया नहीं कहा जा सकता, यह बात ठीक नहीं, क्योंकि चन्द्रमाके एक जानने पर भी दो चांद ज्ञानका कारण अविशा है। तथा च
श्रद्वतवाद
श्री शङ्कराचार्य आदि ने वेदान्त आदि ग्रन्थों का अर्थ द्वैत परक किया है । परन्तु हमारी दृष्टिमें प्रस्थान त्रयोका यह अभिप्राय नहीं है क्योंकि यदि एक ब्रह्म ही सब शरीरों में जीव भाव को अनुभव कर रहा है तो जैसे एक शरीर वाले को यह प्रतीति होती है कि मेरे पेट में दर्द है बांखादिमें नहीं है इसी प्रकार उसे अन्य सब जीवोंके भी सुख व दुःखोंका ज्ञान होना चाहिये । परन्तु हम देखते हैं कि एक जीवको दूसरे जीवोंके सुख दुःख आदि का अनुभव नहीं होता अतः यह सिद्ध है कि श्रद्वैतवाद अयुक्त है। तथा सब जीवों के ब्रह्म होने से, बद्ध. मुक्त, गुरु, शिष्य, ज्ञानी अज्ञानी आदिकी व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी। यदि यह कहा जाये कि सुख दुःख गुरु शिष्य ज्ञानी अज्ञानी सब कल्पना मात्र हैं वास्तविक नहीं है, तो प्रश्न यह उपस्थित होता है कि ये कल्पनायें किसकी हैं ? की या जीवकी ? यदि कहो कि ब्रह्म की कल्पनायें हैं तो ब्रह्म तो शुद्धस्वरूप है उसमें तो कल्पना का होना आपके सिद्धान्त के विरुद्ध है । और यदि जीव की कल्पनायें मानें तो योन्याश्रयदोष आता है क्योंकि कल्पना हो तब जीवत्य हो और जीवत्व होने से कल्पना हो सके । अतः परस्पराश्रयदोष होने से यह कल्पना भी युक्तियुक्त नहीं है।
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तथा च अद्वैतवाद मानने पर वेदादि शास्त्र भी मिथ्या सिद्ध