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हो जाते हैं। क्योंकि ये सब भी मायाकृत, कल्पित अथवा श्रविद्या अति भेद हैं, अतः पुनः इन मिथ्या शास्त्रों में वर्णित मोक्षके उपायों का भी कुल सार नहीं है । श्रतः वेदान्त दर्शनकारने स्वयं प्रद्वैतवादका निराकरण निम्न शब्दों में किया है।
कृत्स्नप्रति निरवयव शब्दकोपो वा । २२२२६ अर्थात --दर्शनकार कहते हैं कि अद्वैतवाद माननेपर यह शंका
होती है कि संपूर्ण माया के चकार में आया हुआ है अथवा उसका कुछ अंश ? यदि कहो कि समस्त ब्रह्म अविद्यासित है तब तो आज तक किसीको मोक्ष हुआ ही नहीं है क्योंकि अभी तक अखिल मा बन्धनमें है, जब अभीतक किसीको भी मुक्ति नहीं हुई तो आगे कोई मोक्ष प्राप्त करसकेगा इसमें क्या प्रमाण है, अतः मोक्ष आदि उपदेश मिथ्या है। और यदि कहो कि माका एक देश माया के बन्धनमें हैं तो मझ को निरंश निरवयय कहने बाली श्रुतियों का उनपर कोप होगा। अर्थात् उन श्रुतियों के विरुद्ध होनेसे यह कथन अमान्य होगा। इस प्रकारकी अनेक युक्तियोंसे इस कृत्स्न अधिकार' में अद्वैतवादका खंडन किया गया है. अतः यह सिद्ध है कि वेदान्त दर्शनमें अद्वैतवाद का समर्थन नहीं किया गया है ।
योग और ईश्वर
प्रश्न यह है कि योग जो सेश्वर सांख्य कहलाता हैं उस योग ईश्वरका क्या स्वरूप हैं। इसका उत्तर स्वयं महाभारतकार देत हैं
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युद्धः प्रतिबुद्धत्वाद् बुद्धमानं च तत्वतः । बुद्धमानं च बुद्धं च प्रादुर्योग निदर्शनम् ॥
महाभारत श्रादिपर्व ० ३०८-४८