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एक पल भर के लिये इस शरीरसे निकल जाये, तो आपको झात हो जाये कि वास्तवमें हमारी क्या इस्ति है। वस जो तुम खातेहो. पीते हो, देखतहो, आनन्द लेते हो वह सब इस आत्माकी कृपाका फल है. सभी को न मानना अपने वापसे मुकरना है। अथवा ऐसा ही है, जैसा कोई कहे कि "मम मुखे जिला नास्ति' उससे कोई कहे कि जब आप के मुख में वाणी नहीं है, तो बोलते कैसे हैं ? यही बात सूत्रकार कहते हैं कि जो भाई यह कहते हैं आत्मा नहीं है, वे बोलते फिस के आधार पर हैं. क्या बाणी बोलती है. यदि यह बात है. तो मुरदोंकी भी बाणी बोलनी चाहिये, परन्तु हम ऐसा नहीं देखते अतः भाषा और ज्ञानका मूल कारण होनेसे आत्मा को मानना चाहिये ।
तथा च श्री शङ्कराचार्य जी ने इस "शास्त्रयानित्यातू" सूत्र का अर्थ निम्न प्रकार भी किया है--
"यथोक्लमृग्वेदादि शास्त्रं योनिः कारणं प्रमाणपस्य ब्राह्मणो यथावत् स्वरूपाधिगमे । शास्त्रादेव प्रमाणाद् जगतो जन्मादिकारणं प्रमादिगम्यत इत्यभिप्रायः ।"
अर्थात् ब्रह्म के यथावत् स्वरूपाववोध के लिये शास्त्र ही ( योनिः ) प्रमाण हैं। अभिप्राय यह है कि शास्त्र के द्वारा ही ब्रह्म का सृष्टि कन्धि जाना जाता है।" यहां श्री शङ्कराचार्यजीने षष्ठी तत्पुरुष समास न करके बहुव्रीहि समास किया है। जिससे प्रथम के सब कल्पित एवं असंगत अर्थों का निराकरण हो कर सूत्र का वास्तविक और युक्तियुक्त श्रार्थ प्रगट हो गया है।।
प्रक्ष शब्द आत्मा का बाचक है इसका विस्तार पूर्वक वर्णन प्रथम हो चुका है।