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( ५२७ ) उत्तर-वस्तुतः ऐसा ही है, परन्तु कल्पित भेद को मान कर सुरू दुःखही व्यामा कही गई है, कहाँ पर पर होता है कि किस की कल्पना ? शुद्ध ज्ञानस्वरूप ब्रह्म तो कल्पना शून्य होने के कारण उसकी कल्पना कथन करना तो सर्वथा असङ्गत है और जीवों की कल्पना में यह दोष है कि कल्पना होतो जीव भाव बने
और जीव भाव हो तो कल्पना बन सके । इस प्रकार परस्परालय दोष लगने से दूसरा पक्ष भी समीचीन नहीं ? इसका उत्तर यह है कि बीजांकुर न्याय की भांनि अविद्या तथा जीव भाव अनादि होने के कारण परस्पराश्रयदोष नही पासा, इस लिये जीवों की कल्पना मानने में कोई बाधा नहीं अर्थान् नानारूप वाली श्रवस्तु भूत अविद्या में गृह स्तम्भकी भाति परस्पराश्रयादि दोष नहीं श्रासे ता वास्तव में ब्रह्म से व्यतिरिक्त जीव स्वभाव से शुद्ध होने पर भी तलवार में प्रतिविम्बित मुख श्यामनादिकी भांति औपाधिक अशुद्धि कल्पना बन सकता है, क्योंकि प्रतिविम्ब गत श्यामतादि की भाँति जीव गत अशुद्धि भी भ्रांति है. यदि ऐसा माने तो मोक्ष बन सकेगा
और जीवों का भ्रम रूप प्रवाह अनादि होने से भ्रांति का मूल दूदना ठीक नहीं । अब आगे का पूर्व पक्ष अद्वैतवाद को न समझे हुवे भदवादियों की ओर से किया जाता है कि जीव को कल्पिस स्वाभाविकापसे अविद्याका श्याश्रय मानने पर ब्रह्म ही अविद्याका
आश्रय सिद्ध हुआ। और ब्रह्म भिन्न कल्पित श्राकार से अविद्याश्रय मानने पर ही अविद्याश्रय मानना पड़ेगा. परन्तु अद्वैतवादी लोग चिद्रप अचिद्रूप उक्त दोनों से पृथक् कोई श्राकार नहीं मानते यदि यह कहा जाय कि कल्पिताकार विशिष्ट रूपसे अविद्याश्रयस्त है तो ठीक नहीं है, क्योंकि अविद्यासे बिना अखएढेकरस स्वरूप से विशिष्ट रूपसे सिद्ध न हो सकने के कारण उसके विशिधरूपको ही अविद्यालयाकार कथन किया गया है, इसके अतिरिक्त यह भी