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नित्य एक विज्ञानपक्षमें योगाभ्यासकी निष्फलता
किं वा निवर्त्तयेद्योगी, योगाभ्यासेन साधयेत् । किं वा न हातुं शक्यो हि विपर्यासस्तदात्मकः ॥ तत्वाज्ञानं न चोत्पाद्यं तादात्म्यात् सर्वदा स्थितेः । योगाभ्यासी पितेनाय - मफलः सर्वएव च ॥ ( तै० [सं० ३३४-३३५ )
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अर्थ - नित्य विज्ञान पक्षमें यदि सिध्याज्ञानही नहीं है, तो योगी योगाभ्यास के द्वारा किसकी । निवृत्ति करेगा और किसकी साधना करेगा ? यदि नित्य विज्ञान को विपर्यासरूप अर्थात् 1. मिथ्याज्ञानरूप कहोगे तो उसका त्याग नहीं होसकता क्योंकि वह नित्य है । नित्यकी निवृत्ति अशक्य है। विज्ञान आत्मरूप होनेसे सदा : विद्यमान रहेगा । विद्यमान सत्यज्ञानकी उत्पत्ति अशक्य हैं, अतः तत्वज्ञानके लिए योगाभ्यासकी आवश्यकता नहीं रहती । इसलिए तुम्हारे मत से योगाभ्यास आदि सर्वप्रक्रिया निष्फल होजाती ।"
श्रत खंडन
श्री शङ्कराचार्यका कहना है कि जिस अवस्थामें द्वैत होता है वहाँ एक दूसरे को देखना सुनता है" 'जहां इसका सब अपना श्राप है वहां कौन किसको देखे सुने” ब्रह्म ही अपनी माया से अनेक रूप हो गया है"
इत्यादि श्रुतियों से भी ब्रह्मातिरिक्त सब मिथ्या पाया जाता हैं, इस वेदार्थ में यह शंका ठीक नहीं कि प्रत्यक्ष से कार्य की