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( ५२.४ )
नहीं है। विज्ञानकी अवस्थाएं बदल जानेपर विज्ञान नित्य नहीं रह सकता क्योंकि अवस्था और अवस्थावानका अभेद होनेसे अवस्था के अनित्य होनेपर अवस्थावान भी अनित्य सिद्ध होगा ।
रूपादि वित्तितो भिन्नं, न झानमुपलभ्यते | तस्य प्रतिभेव
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( तै० सं० ३३२ )
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अर्थ - रूपरसादि ज्ञानसे पृथक कोई नित्य विज्ञान उपलब्ध नहीं होता हैं। जो उपलब्ध होता है बहुप्रतिक्षण बदलता रहता है चिरकाल तक रहने वाला कोई अभिन्नज्ञान नित्यविज्ञानन तो प्रत्यक्ष से उपलब्ध होता है और न अनुमानसे इन दोनों प्रमाणोंसे जो वस्तु सिद्ध नहीं है उसका स्वीकार करना ही व्यर्थ है ।
नित्य विज्ञान पक्षमें बन्धमोक्षकी व्यवस्था नहीं होती
विपर्यस्ताविपर्यस्त - ज्ञान भेदो न विद्यते । एकज्ञानात्मके पुंसि बन्नतः ततः कथम् ॥
( तै० सं० ३३३ )
अर्थ - नित्य एक विज्ञान पक्षमें विपरीत ज्ञान और अविपरीत ज्ञान. यथार्थज्ञान और अवार्थज्ञान सम्यग्ज्ञान श्ररमिध्याज्ञान इस प्रकार भेद नहीं रह सकता तो एक ज्ञानस्वरूप आत्मामें बन्ध मोक्ष व्यवस्था कैसे होसकती है ? हमारे मत में मिथ्या ज्ञानका योग होने पर बन्ध और मिथ्याज्ञानकी निवृत्ति होनेपर सम्यग्ज्ञान के योगसे मोदकी व्यवस्था अच्छी तरह होसकती है।