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शाश्वतीभ्यः समाभ्यः ( यजु०४०।८
तथा विष्णुपुराण (१२२।५८) इन्हें अक्षय नित्य कहता है प्रलय काल में भी भगवान के साथ जगतकी सूक्ष्म रूपेण अवस्थिति उस प्रकार रहती है जिस प्रकार रात के समय वनमें लीन विहंगमाकी स्थिति । 'भारतीय दर्शन ।।
यह स्पष्ट रूपसे जगतकी नित्यताका कथन है । नथा जिस प्रकार रात्रि में विहंगमोंका नाश नहीं होता उसी प्रकार प्रल यमें जगतका नाश नहीं होता, अपितु उसका निगे भाव हो जाना है।
(२) प्रत्यभिज्ञा (त्रिकदर्शन)
यह भी जगतकी उत्पत्ति आदि नहीं मानना है । इमका कहना है कि- परम शिव ही इस विश्वका जन्मीलन स्वयं करने हैं। न किसी उत्पादनकी आवश्यकता है न किसी आधारकी । जगत पहले भी विद्यमान था, केवल उसका प्रकटीकरण मृष्टिकालमें शित्र शक्तिसे सम्पन्न होता है ।" भारतीय दर्शन । पृ. ५.२ ।
यहां भी सृष्टि रचनाका अर्थ सुष्धि उत्पत्ति नहीं अपितु इसका प्रकटीकरण मात्र है । अतः जगत नित्य है यह वेदान्तके आचार्यों के कथनोंसे ही सिद्ध हो जाता है । वेदान्त दर्शनका अपना तात्विक सिद्धान्त क्या था यह जानना अाज कठिनतर कार्य है । क्योंकि इस पर जितने भी भाष्य है के मब साम्प्रदायिक दृटियोंसे किये गगे हैं। उनमें निस्पक्ष तालिक भाषय कोई नहीं है । अतः वेदान्त दर्शनको ममझने के लिये इन भाष्योंका ही आसरा नहीं लेना चाहिये अपितु मूल सूत्रों का आशय समझाने का प्रयत्न करना चाहिये । हमारा विश्वास है कि मूल सूत्रोंमें इस अवैविक और