________________
( ५२ ) जगत् के अनन्यवाद, अविद्यावाद, भ्रान्तिवाद, मायावाद, ये सब वाद अनित्य जगत के औपचारिक हैं। जिस तरह मुग तृष्णा रज्जुस्पं और स्वप्न प्रपंच थोड़े समय तक अविर्भूत हो कर पीले विलीन हो जाते हैं उसी तरह जगद्विस्तार भी अमुक समय तक अविर्भाव प्राप्त करके पीछे लग न हो रहा है । प्रतिमा जगत औपचारिक असत् हैं। आत्मा नित्य होने से पारमार्थिक सत्य है । जगत् का असत्यत्व नैराग्य पैदा करने के लिये है।
श्रात्मा का परमार्थपन सत्य है मुमुक्षुओं के उत्साह की वृद्धि करने के लिये है । मृत्पिण्डके विकार का दृष्टान्त ग्रहां ठीक घटित होता है। मिट्टी के बर्तन घड़ा शराब इत्यादि अनेक नाम वाले होते हुये भी एक मिट्टी के विकार हैं। मिट्टी सत्य है। घड़ा शराब
आदि वाचारंभमात्र हैं। नाम रूप भिन्नर हैं वस्तु भिन्न नहीं है किन्तु एक ही मिट्टी है । श्रात्मा और जगत् विषय में भी ऐसे ही समझलेना चाहिये । जगन् नानारूप दिखाई देता है सो एक श्रात्मा का विकार परिणाम रूप है । एक है किन्तु अन्तःकरणकी उपाधिके भेद से भिन्न भिन्न जीव वनते हैं। जीव के भेद से बन्ध मोक्ष की व्यवस्था हो सकती है।
मीमांसकोंका उत्तर पक्ष आत्मा चैतन्य रुप होनेसे उसका जड़ रूप परिणाम नहीं अन सकता। दूसरी बात'. एक ही बास्ना माननेसे सब शरीरों में एक ही
आत्माका प्रतिसंधान होगा । यज्ञदत और देवदत्त दोनों अलग २ प्रतीत न होंगे। देवदत्त के शरीरमें सुखको और यज्ञदत्त के शरीर में दुःखकी प्रतीति एक समयमें एक ही प्रांत्माको होगी। ___अन्तःकरणके भेदसे दोनोंके सुख दुःखकी भिन्न भिन्न प्रतीति हो जायगी ऐसा कहते हो तो यह भी ठीक नहीं है । अन्तःकरण