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। ५१६ ) तस्य शीघ्रप्रवृत्तेन सर्वेभ्यो बलीयस्त्वान् ।' 'किंच प्रपंचा भावं प्रतीयताऽवश्यमागमोपि प्रपंचन्तिर्गतत्वादसदूपतया प्रत्येतव्यः । कथं चागमे नैवागमस्याभावः प्र तीयेत १ असद्रूपतया हि प्रतीयमाना न कस्यापिपदायर्थस्य प्रमाणं स्यात्। प्रामाण्ये वा नासत्यम् । ( शा० दी० २११५ पृष्ठ ११० ) ___ अर्थ-या वर्तमान में भी जगत् विस्तार असत है? जो जगत प्रत्यक्षसे सद्रूप दिखाई देता है उसका आगमसे बाधित होना संभक्ति नहीं है. कारण यह है कि प्रत्यक्ष सबसे बलवान है और आगमकी अपेक्षा इसकी प्रवृत्ति सबसे पहले होती है।। __ दूसरी बात यह है कि जगनको असदूप माननेवाले पुरुषको जगत के अन्दर रहे हुए श्रागमको असदू मानमा पड़ेगा, वहभी प्रत्यक्ष प्रमाण से नहीं किन्तु श्रागम प्रमाणसे इसमें विचारणीय यह बात है कि आगम स्वयं अपना अभाव किस तरह सिद्ध करेगा यदि आगम असद्रप सिद्ध होजायगा तो वह किसीभी अर्थके लिए प्रमाण स्वरूप न रह सकेगा। और अगर प्रमाणरूप रहेगा तो वह असनूप नहीं रह सकेगा ( असदृष और प्रामाण्य ये दोनों परस्पर बिरोधी हैं अतः एक वस्तु में नहीं टिक सकने ।
अनिर्वचनीयवाद वेदान्तर्गत अनिर्वचनीयवादी कहता है कि हम प्रपंच-जगत् को असत नहीं कहते क्योंकि असन् किस प्रकार कहा जाय ? किन्तु परमार्थ से सत् भी नहीं कह सकते क्योंकि श्रात्म ज्ञानसे बाधा आती है। अतः जगन् सत और असत दोनों से वाच्य न होकर अनिर्वचनीय है।