________________
श्रुतियोंको गौण माना है तथा अनित्य वाली श्रुतियोंको मुख्य मान कर समन्वय किया है, वह विलकुल ही असंगत है । इस प्रकार उनको गौण मानने में कुछ भी युक्ति या प्रमाण नहीं है । वास्तवमें तो जैसा कि हम प्रथम श्री शंकराचार्यके प्रमाण से ही सिद्ध कर चुके हैं कि ये सन पदार्थ जाति रूपसे नित्य है तथा व्यक्ति रूपसे उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते रहते हैं। यही आशय यहां भी शास्त्रका है अतः यह सिद्ध है कि वेदान्त दर्शन भी जगत नित्य श्रकृतृम मानता है तथा इश्वरको जगत कत्ती नहीं मानता।
तथा च ऐतरेयोपनिषद् द्वितीय अध्याय के प्रारम्भ में सृष्टि रचना आदिका विचित्र वर्णन है । इस पर प्रतिवादीने प्रश्न किया कि तो क्या इन सब बातोंको असम्भव माना जाये ? इसका उत्तर श्री शंकराचार्यजी देते हैं कि नहीं यह सब आत्मावबोध करानेके लिये अर्थवादमात्र है, अर्थात् आत्माकी प्रशंसा मात्र है, इस लिये कोई दोष नहीं है। (उत्तर) न अत्रात्मावबोधमानस्य विवक्षित्वात् ।
तथा जहां जहां इनकी उत्पत्ति आदिका कथन है, वहां वहां, शरीर या प्राण अर्थ है । जैसे,
आत्मन आकाशः संभूतः, आकाशाद् वायुः। आदि ।
यहाँ आकाशका अर्थ सूक्ष्म प्राण, तथा वायुका अर्थ स्थूल प्राण है। इसी प्रकार जहां जहां अाकाश, वायु, तेज, प्राण आदिकी उत्पत्तिका निषेध किया है, वहां यहां वह सांसारिक पदाथों का वर्णन होता है। ___ श्रीयुत पं० माधवराव सप्रेने 'आत्मविद्या के पृ० ३६६ पर श्राकाशाद न्याय, इस श्रुतिका अर्थ जीवके अवतरण परक क्रिया है अर्थात् आत्माके परलोकसे लौटनेका क्रम इस अतिमें बताया गया है ।