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माया और वेद श्री शङ्कराचार्यजीका अद्वैतवाद वैदिक नहींहै इसमें एक प्रमाण यह भी है कि माया शब्द का अर्थ जो अद्वैतवादी करते हैं वह अर्थ पूर्व समय में महीं था । क्यों कि वेदों में आये हुये 'माया' शब्द का अर्थ सष स्थानों पर बुद्धि तथा कर्म ही किया गया है। श्री पाण्डेय रामावतार जी शर्मा ने 'भारतीय ईश्वरवाद' नामक पुस्तक में अनेक मन्त्र इस विषयक उपस्थित किये हैं तथा अनेक भाष्य एवं निरुक्त श्रादि के भी प्रमाणों से इस विषय की पुष्टि की गई है। अतः सिद्ध है कि गैदिक साहित्य में माया शब्द प्रचलित अर्थों में प्रयुक्त नहीं रा है । अतः माया मजते विश्वमेतत् (श्वेताश्वरोपनिषद्) इन्द्रोमायाभिः पुरुरूप ईयते ( पृ. ॥२॥१६)
आदि श्रुतियों का अर्थ हुआ-(मायो ) कोंमें लिन श्रात्मा इन शरीरादि की रचना करता रहता है । तथा च ( इन्द्र ) आत्मा ( मायाभिः ) कर्मों से अनेक शरीर धारण करता है। तथा च (इन्द्रामायाभिः) यह मन्त्र ऋग्वेद में भी पाया है। उसकी व्याख्या करते हुये निस्क्तकार यास्काचार्य ने माया का अर्थ बुद्धि ही किया है । अतः उपरोक्त श्रुतियों से वर्तमान मायावाद या अविद्यावाद का समर्थन करना ठीक नहीं है। ___ इसके अलावा हम घेदान्तके अन्य दो सम्प्रदायों का भी उहख करते हैं जो कि जगतको नित्य मानते हैं।
(A) चैतन्य सम्प्रदाय |-इसका कथन है कि "जगत (प्रपंच) नितरां सत्यभूतपदार्थ है क्योंकि यह सत्य संकल्प हरिकी बहिरंग शक्तिका विलास है श्रुति तथा स्मृति एक स्वरसे जगतकी सत्यता प्रतिपादित करती हैं। यथा