________________
( ५०५ )
श्रुतियां आत्मा को जानने का उपदेश देती है, अतः यहां मारमा के जानने का उपदेश है ।
अभिप्राय यह है जिस प्रकार मैत्री को संसार से वैराग्य हो जाने पर याज्ञवल्क्यसे उसने कहा था कि
येनाहं नामृतास्यां किमहं तेन कुर्याम् ।" कृ० २|४|३ महाराज यदि इस विशाल वैभव से में मृत पक्ष की प्राप्त नहीं हो सकती तो इस धन का मैं क्या करूंगी. अतः मुझे वह वस्तु प्रदान करें। जिससे में जन्म मरण रूप दुःखों से मुक्त हो कर निस्य आनन्द को प्राप्त करूँ, इस पर महर्षि यशवल्क्य ने उसको आत्मज्ञान का उपदेश दिया था, और कहा था कि
न हि सर्वस्य कामाय सर्व प्रियं भवति, आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति || कु० २|४|३
हे मैत्री ! संसार में पुत्र, स्त्री, पति, धन, शरीर आदि पुत्र. आदि के लिये प्रिय नहीं होते अपितु आत्मा के लिये सब कुछ प्रिय होता है इसलिये आत्माका दर्शन श्रवण, मनन आदि करना चाहिये | अतः श्रतिमें ज्ञातव्य पदार्थ एक मात्र आत्माको दी कहा है. अतः यहां भी महर्षि व्यास ने ब्रह्म शब्द से आत्मा का ही उपदेश किया है ।
तदात्मनमेव वेदाहं ब्रह्मास्मीति तस्मातत्सर्वमभवत | कृ० १/४ अर्थात् उसने अपने को मैं हूँ ऐसा जादा इसी से वह सत्र (सर्वज्ञ) हो गया ।
तरति शोकमात्मविदिति, छा० ७११/३
इत्यादि श्रुतियों से आत्मा और अक्ष की एकता का वर्णन