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(महदादि सात प्रकृति-विकृति सहित) अष्टधा अथात् पाठ प्रकार की प्रकृति निर्मित हुई (ममा शां ३०६।२६ और ३१०।१० देखो) अर्थात् वेदान्तियों के मत से पच्चीस तत्वों में से सोलह तत्वों को छोड़ शेष नौ तत्वों के केवल दो ही पर्ग किये जाते हैं-एक 'जीव'
और दूसरी अष्टधा प्रकृति' भगवद्गीता में वेदान्तियों का यही वर्गीकरण स्वीकृत किया है। परन्तु इसमें भी अन्त में थोड़ा सा फर्क हो गया है। सांख्य-वादी जिसे पुरुष कहते हैं उसे ही गीता में जीव कहा है, और यह बतलाया है कि वह (जीव) ईश्वर की 'पराप्रकृति' अर्थात् श्रेष्ठ स्वरूप है, और सांख्य-वादी जिसे मूल प्रकृति तहते हैं, उसे ही गीता में परमेश्वर का 'अपर' अर्थात् कनिष्ठ स्वरूप कहा गया है (गी० ७ १ ४।५ । इस प्रकार पहले दो बड़े २ वर्ग कर लेने पर उनमें से दूसरे वर्ग के अर्थात् कनिष्ठ स्वरूप के जब और भी भेद या प्रकार भी बतलाने पड़ते हैं, तब इस कनिष्ठ स्वरूप के अतिरिक्त उससे उपजे हुए शेष तत्वों को भी बतलाना आवश्यक होता है । क्यों कि यह कनिष्ठ स्वरूप ( अर्थात् सांख्यों की मूल प्रकृति ) स्वयं अपना ही एक प्रकार या भेद हो नही सकता । उदाहरणार्थ जब यह बतलाना पड़ता है. कि बापके लड़के कितने हैं. तब उन लड़की में ही बापक गणना नहीं की जा सकती, अतएव परमेश्वर के कनिष्ठ स्वरूप के अन्य भेदोंको बतलाते समय यह कहना पड़ता है कि वेशान्तियोंकी अष्टधा प्रकृति में से मूल प्रकृति को छोड़ शेष सात तत्व ही ( अर्थान्-महान ) अहंकार और पांच तन्मात्राएं ) उस मूल प्रकृति के भेद या प्रकार हैं। परन्तु ऐसा करने से कहना पड़ेगा कि परमेश्वर का कनिष्ठ स्वरूप (अर्थात मूल प्रति ) सात प्रकार का है, और ऊपर कह श्राये है, कि वेदान्ती तो प्रकृति को अश्या अर्थात् पाठ प्रकार की मानते हैं। अब इस स्थान पर यह विरोध देख पड़ता है, कि जिस प्रकृति को वेदान्ती अष्टधा या आठ प्रकारकी कहे उसीको गीता
पाये हैं, का मूल प्रकृति ) सात प्रकार परमेश्वर का कनिष्ठ