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पुराने धर्मसूत्रों और स्मृतियोंमें
करनेपर
are की आशा है। वैदिक यज्ञ और स्मार्त धर्म से पवित्र हुआ आर्य ही समाज का सच्चा स्वामी था । उसे यह स्वामित्व. और श्रेष्ठत्व वैदिकमके जन्म सिद्धि अधिकार के कारण मिली हुई पत्रित्रता से ही प्राप्त होता था । यह पवित्रता ब्राह्म का पुरोहिताई से प्राप्त होती हैं। इसलिये ब्राह्मणों को समाज में श्रेष्ठ स्थान दिया गया कुछ लोग कल्पना करते हैं कि ब्राह्मण का अर्थ है त्यागी, ज्ञानी. संयमी तपस्वी । परन्तु श्रौत स्मात कायदे के अनुसार ब्राह्मण शब्द का यह वाच्याथ नहीं । ब्राह्मण यदि दूसरे वर्ष की स्त्रियों के साथ व्यभिचार करें तो उसके लिये स्मृतियों में बहुत हल्के दंड का विधान है और और उसके साथ उसे विवाह करने की भी आज्ञा दी गई हैं। शुद्ध स्त्रियों को रखेल के तौर पर रखने की तो
बड़े धर्म स्मृतिकारों ने आज्ञा दी है। जिन्होंने नहीं दी है, वे वाकायदा कोई विशेष दंड भी नहीं बतलाते। इसके विपरीत यदि दूसरे वर्णका या शूद्र वर्णका पुरुष ब्राह्मण या श्रार्य स्त्री से विवाह करता है अथवा व्यभिचार करता है, तो उसे अत्यन्त तीन यातनाम प्राण दंड का विधान है। ब्राह्मणों को किसी भी अपराध में "प्राण दंड नहीं मिल सकता । त्याग. संयम और तप से विश्विलित हुए ब्राह्मण को तो दूसरे वरके समान ही दण्ड मिलना चाहिए परन्तु वेद और स्मृतियों में इससे उल्टा ही है ब्राह्मण और वैदिक आर्थीक वैदिकों की अपेक्षा जन्मसिद्धिं सुभीते और अधिकार बहुत ज्यादा दिये हैं। श्रौतस्मात कायदे में सम्पत्ति, सत्ता भोग और सम्मान के विषय में ब्राह्मणों को जितने सुभीते हैं उतने किसी को भी नहीं हैं। उन कायदों के दृष्टि से त्याग, संयम ज्ञात और तप को कोई अधिक महत्व नहीं दिया गया है ।
जिस ज्ञान को महत्व दिया है वह वेद-विद्या या पुरोहिताई का ज्ञान है। न्याय-दान का काम कानून के पंडित ब्राह्मणों को पहिले