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सरूप कायम ही रहा । ।यह स्थिति मौर्य साम्राज्य के पतन के अनन्तर की है। भारतीत समाज संस्था प्रफ दीर्घकालीन स्थैर्य युग में प्रविष्ट हुई। इस युगमें काव्य, नाटक, टीका, भाष्य, अलंकार और तर्क शास्त्र बढ़ रहे थे।
आचार्य शङ्कराचार्य ने देखा कि हमारी धर्म-संस्था ब्रह्मबाद, मायावाद. मानव बुद्धिकी समीक्षक प्रमाण-पद्धितिसे सिद्ध नहीं हो सकती. तब उन्होंने श्रुति प्रामण्य का आश्रय लिया। इसका अर्थ यह हुआ कि उपनिषत्काल से लेकर विकिसित होने वाले भारतीय बुद्धिवाद और तत्ववाद ज्ञान को शुलन प्रमाण की शिला के नीचे पूरी तरह से जीते जी समाधि दची । और उसका अन्त कर दिया दर्शन अथवा तत्वज्ञान वस्तु की अथवा विश्व की मानव बुद्धि से की हुई छान बीन है । मनुष्य के प्रयत्न से नित्य विकिसित होने वाली वस्तु समीक्षा को हजारों वर्ष पहिले के वैदिक मानवों की बुद्धि से निर्वाण हुई चार पुस्तकोंके (वेदोंके) प्रामाण्यसे जकड़ डालनेका प्रयत्न शङ्कराचार्य ने किया और पुराने वैदिक लोगोंकी मर्यादित अपूर्ण बुद्धि को पूर्णत्व अर्पण करके वैदिक विकास की जड़े हो उखाड़ डाली। भारतीय समाज संस्था का जिस समय विकास ही रुक गया और जीर्णता शिथिलता और दुरवस्थाके कारण समाज में कोई भी आशा न रह गई, उस स्थिति में शङ्कराचार्य जैसे अलौकिक बुद्धि और विशाल प्रतिभा वाले पुरुषके तत्वज्ञान का उस स्थिति के अनुरूप यदि इस प्रकार का पर्यावसान हुआ तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । उस समय यदि विज्ञान युग का प्रारम्भ होने योग्य अनुकूल समान दशा होती, तो शंकराचार्य के प्रखर तर्कशास्त्र से विहीर्ण हुए तत्त्वज्ञान के विनाश से नवीन तर्कशास्त्र और नवीन भौतिकवाद उत्पन्न हुआ होता।सारे आध्यात्मवादी तत्त्वज्ञानाकी सर्वांगी जांच करने पर इसके सिवाय और
प्रसन्न होने योग्य बात नहीं है। का पर्यावसान