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पार्थक्य इस भांति है, :--महाभारत में प्रथम सूर्य तपता है जब कि ब्रह्म पुराणके प्रल गमें सर्व प्रथम सो वर्ष अनावृष्टि -- दुष्काल पड़ता है। इस काल में अल्पशक्ति बाले पार्थिव प्राणियोंका नाश हो जाता है । इसके बाद विष्णु रुद्र रूप धारण कर, सूर्य की सात किरणों में प्रवेश कर समुद्र तालाब आदि का समस्त जल पी जाता है । काष्टं ,मिट्टी और रास्त्र में से विविध प्रकार के पशु पैदा हुए हैं । आदि आदि ।
ॐकार सृष्टि - ब्रह्म ह वै ब्रह्माणं पुष्करे ससृजे, स खलु ब्रमा सृष्टि चिन्तामापेदे केनाहमेकेनाक्षरेण सर्वाश्चकामान् सर्वाश्च लोकान् सर्वांश्च वेदान सर्वांश्च यज्ञान् सर्वांश्च शब्दान सर्वाश्च व्युष्टीः सर्वा िच भूतानि स्थावर जंगमान्यनुभवेयमिति स ब्रह्मचर्यपचरत् । स प्रोमित्येतदक्षरमपश्यद् द्विवर्णचतुमात्रं सर्वव्यापि सर्व विम्बयातपाम ब्रह्म ब्राह्मी व्याहृति ब्रह्मदैवतं, तया सर्वांच कामान् सांश्च लोकान........ सर्वाणि च भूतानि स्थावरजंगमान्यन्वभवत् सस्य प्रध्य. मेन वर्णेनापस्नेहथान्वभवत् । तस्य द्वितीयेन वर्णेन तेजो ज्योतीष्यन्त्रभवत् । (गो. ब्रा० पू० भा० १।१६)
अर्थ-ब्राहा ने ब्रह्मा मन को हृदय में उत्पन्न किया । उत्पन्न हो कर ब्रह्मा ने चिन्ता की कि में एक अक्षर मात्र से सर्व लोक सर्व देवता. सर्व देह. सर्व यज्ञ, सर्व शब्द, सर्व यसतियां. सर्व भूत स्थावर जंगम को किस प्रकार उत्पन्न करू ? ऐसी चिन्ता करके उसने ब्रह्मचर रूप ब्रह्म नपका श्राचरण किया। उसने आकार