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यद्यपि केवल शब्द गुण के अथवा केवल स्पर्शगुण से पृथक यानी दूसरे गुणों के मिश्रण रहित पदार्थ हमें देख न पड़ते हों, तथापि इसमें सन्देह नहीं कि मूल प्रकृति में निश शब्द निरास्पर्श, निरारूप निरा रस और निरा गंध है। अर्थात शब्द तन्मात्र स्पर्शतन्मात्र, रूप तन्मात्र, रस तन्मात्र, और गन्ध तन्मात्र ही हैं, अर्थात् मूल प्रकृति के यहीं पांच भिन्न भिन्न सूक्ष्म सन्मात्र विकार अथवा द्रव्य निःसंदेह हैं। आगे इस बात का विचार किया गया है. कि पंच तन्मात्राओं अथवा उनसे उत्पन्न होनेवाले पंच महाभूतों के सम्बन्ध में उपनिषदकारों का कथन क्या है।
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इस प्रकार निरिन्द्रिन - सृष्टि का विचार करके यह निश्चित क्रिया गया, कि उसमें पांच ही सूक्ष्म मूल तत्व हैं. और जब हम सेन्द्रिय-सृष्टि पर दृष्टि डालते हैं तब भी यही प्रतीत होता है, कि कि पांच ज्ञानेन्द्रियां पांच कर्मेन्द्रियां और मन इन ग्यारह इन्द्रियों की अपेक्षा अधिक इन्द्रियां किसी के भी नहीं हैं। स्थूल देह में हाथ-पैर आदि इन्द्रियां यद्यपि स्थूल प्रतीत होता है, तथापि इनमें से प्रत्येक की जड़ से किसी मूल सूक्ष्म तत्व का अस्तित्व माने बिना इन्द्रियों की भिन्नता का यथोचित कारण मालूम नहीं होता। पश्चिमी श्रधिभौतिक उत्क्रान्ति-वादियों ने इस बात की खूब चर्चा की है। वे कहते हैं कि मूल के अत्यन्त छोटे धीर गोलाकार जन्तुओं में सिर्फ त्वचा' ही एक इन्द्रिय होती हैं। और इस त्वचा ही से अन्य इन्द्रियां क्रमशः उत्पन्न होती है. उदाहरणार्थ मूल जन्तु की त्वचः से प्रकाश का संयोग होने पर आंख उत्पन्न हुई इत्यादि । आधिभौतकवादियों का यह तत्व कि प्रकाश आदि संयोग से स्थूल इन्द्रियों का प्रादुर्भाव ता है. सांख्यों को भी ग्राह्य हैं। महाभारत (शां- २११६ ) में सांख्य प्रक्रिया के अनुसार इन्द्रियों के प्रादुर्भाव का वर्णन इस प्रकार पाया जाता है---
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