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( १७६ ) की व्यवस्था करके वह उन्हें बुद्धि के सामने निर्णयार्थ उपस्थिति करता है, और कर्मेन्द्रियों के साथ बह व्याकणात्मक होता है, अर्थात् उसे बुद्धि के निर्णय को कर्मेन्द्रियों द्वारा अमल में लाना पड़ता है। इस प्रकार वह उभय विध, अश्रोत इंद्रय-भेद के अनु. सार भिन्न प्रकार के काम करने वाला होता है । उपनिषदों में इन्द्रियों को ही प्राण' कहा है, और सांख्यों के मतानुसार उपनिषत्कारोंका भी यही मत है. कि ये प्राण पञ्चमहाभूतात्मक नहीं हैं, (मुंड २।५ । ६) । इन प्रारणे को. अर्थात् इन्द्रियों की संख्या उपनिषदोंमें कहीं सात, कहीं दस, ग्यारह. बारह और कहीं कहीं तेरह वतलाई गई है। परन्तु वेदान्त सूत्रों के आधार से श्री शंकराचार्य ने निश्चित किया है, कि उपनिषदोंके सब बाक्यों की एक रूपता करने पर इन्द्रियों की संख्या ग्यारह ही होती है ( बेसूदशाभा । ४।५।६ और (गीता :३ । ५) अर्थात् इन्द्रियाँ दस और एक' अर्थात् ग्यारह हैं। अब इस विषय पर सांख्य और वेदान्त दोनों शास्त्रों में कोई मतभेद नहीं रहा । सांख्यों के निश्चित किये मत का सारांश यह है.-सात्विक अहंकार से सेन्द्रिय सृष्टि की मूलभूत ग्यारह इन्द्रिय शक्तियां (गुरण) उत्पन्न होती है, और तामस अहंकार से निरिन्द्रिय-सृष्टि के मूल भूत पांच तन्मात्र द्रव्य निर्मित होते हैं. इसके बाद पञ्चतन्मात्र-द्रव्यों से क्रमशः स्यूल पन्चमहाभूत ( जिन्हें 'विशेष' भी कहते हैं) और स्थूल निरिन्द्रिय पदार्थ बनने लगने है. तथा यथा सम्भव इन पदार्थों का संयोग ग्यारह इन्द्रियों के साथ हो जाने पर, सेन्द्रिय सृष्टि बन जाती है ।
स्थूल पंच महाभूत और पुरुष को मिला कर कुल तत्वों की संख्या पञ्चीस है। इनमें से महान अथवा बुद्धि के बाद के तेईस गुण मूल प्रकृति के विकार हैं। किन्तु उनमें भी यह भेद है, कि