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वेश होता है किन्तु क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-ज्ञान और अध्यात्म विषयों का भी समावेश हो जाता है।
भगवद्गीताके मतानुसार प्रकृति अपना खेल करनेया स्मृष्टिका का कार्य चलाने के लिये स्वतंत्र नहीं है, किन्तु उसे यह काम ईश्वरकी इक्छा अनुसार करना पड़ता है (गी: । १०)। परन्तु पहले बताया जा चुका है, कि कपिलाचायने प्रकृतिको स्वतंत्र माना है। सांख्य शास्त्र के अनुमार. प्रकृतिका संसार प्रारम्भ होने के लिये पुरुषका संयोग' ही मिमित्त-कारण बस हो जाता है . इस विषयमें प्रकृति और किसीकी भी अपेक्षा नहीं करती। सांख्योंका यह कथन है कि. ज्योंही पुरुष और प्रकृतिका सयोग होता है क्यों ही उसकी टकसाल जारी हो जाती है. जिस प्रकार बसन्त ऋतुमें वृक्षों में नय पत्ते देख पड़ते हैं, और क्रमशः फूल और फल आने लगते है (मभा० । शा० २६१ । ७३ ; मनु, ५ । ३८), उसी प्रकार प्रकृतिकी मूल साम्यावस्था नष्ट हो जाती हैं. और उसके गुणोंका विस्तार होने लगता है । इसके विरुद्ध वेद संहिता, उपनिषद् और स्मृति-अन्धों में प्रकृतिको मूल न मान कर परनाङ्गाको मूल माना है.
और परमासे सृष्टिको उत्पत्ति होनेके विषयमें भिन्न भिन्न वर्णन किये गए हैं. जैसे
"हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्" - पहले हिरण्यगर्भ (ऋ०१० । १२१ । १) और इस हिरण्यगर्भ से अथवा सत्यसे सब सृष्टि उत्पन्न हुई ( ऋ०१२।७२।१८।१९८). अथवा पहले पानी उत्पन्न हुश्रा (ऋ० १० । ८३ । ६ ; लेकमा १ १६३ । ५ : ऐ८७० १ । १ ; ), और फिर उससे मृष्टि हुई, उस पानी में एक अण्डा उत्पन्न हुना और उससे ब्रह्मा उत्पन्न हुआ, तथा ब्रह्मासे अथवा उस मूल अगडेसे ही सारा जगत उत्पन्न हुभा सनु १ । ८ १३ ; लां० ३ । १६) अथवा वही ब्रह्मा (पुरुष) आधे हिस्सेसे स्त्री हो गया (:. १ 1४ | ३ ; मनु. ३०.), अथवा पानी